मंगलवार, अक्तूबर 02, 2007

अमृत घूंट (३)[चार्ली चैप्लिन और बर्नॉर्ड शॉ से भेंट] : ले. नारायण देसाई

     [ पहला तथा दूसरा भाग ] यॉर्कशायर के मिल मालिकों के एक विश्रांति गृह में बेरोजगार लोगों के संगठन ने खास उपासना का आयोजन कर प्रार्थना की कि 'प्रभो , तुम्हारी इच्छा पूरी हो ।'

    गांधीजी करुणा-सभर लेकिन दृढ़ थे । ' मैं आपके साथ ईमानदार न बनूँ तो मैं बेवफ़ा बनूँगा , झूठा मित्र माना जाऊँगा । आपके यहाँ तीस लाख बेकार हैं । लेकिन हमारे यहाँ तो लगभग तीस करोड़ लोग छ: महीने बेकार रहते हैं । आपको बेरोजगारी की राहत में ७० शीलिंग मिलते हैं । हमारी औसत आय हर माह साढ़े सात शीलिंग ही है । उस कारीगर ने जो कहा वह ठीक ही कहा कि उसकी अपनी नज़र में उसकी कीमत घटती जाती है । बेकार रहना और दया-दान पर जीना : मनुष्य के लिए लगभग अध:पात करने वाला है- यह मैं अवश्य मानता हूँ । अत: आप कल्पना कीजिए कि तीस करोड़ लोगों को काम न मिलता हो और करोड़ों लोग हर रोज काम के अभाव में स्वमानशून्य , ईश्वरनिष्ठाशून्य हो जाते हों ; यह कितनी बड़ी आपत्ति होनी चाहिए ।...उन भूखे करोड़ों लोगों के समक्ष ईश्वर का नाम लेना हो तो उस कुत्ते के समक्ष लेने के बराबर है । उनके पास ईश्वर का सन्देश ले जाना हो तो मुझे पवित्र परिश्रम का संदेश ही ले जाना चाहिए ।...आपकी विपत्ति में भी आप अपेक्षाकृत सुखी हैं । उस सुख की मैं ईर्ष्या नहीं करता ।मैं आपका भला चाहता हूँ ।लेकिन हिन्दुस्तान के करोड़ों कंगालों की कबर पर आबाद रहने का आप विचार मत करना । हिन्दुस्तान के लिए नितान्त एकाकी जीवन मैं नहीं चाहता । लेकिन मेरे देश को अन्नवस्त्र के लिए मैं किसी दूसरे देश पर अवलंबित रखना नहीं चाहता । आज के संकट को पार कर जाने के उपाय तो हम जरूर सोचें , लेकिन मुझे आपसे यह कहना होगा कि लंकाशायर का पुराना व्यापार पुन: जीवित करने की आशा तो नहीं रखनी चाहिए । वह असंभवित बात है । उस क्रिया में मैं धर्म-बुद्धि से मदद नहीं कर सकता ।.."

    महादेव भाई अपनी डायरी में लिखते हैं कि जो बेकार मजदूर गांधीजी से मिले उनके मनमें कोई कडुवाहट नहीं थी ।... उनमें से एक ने कहा, " इसमें से कुछ अच्छा फल निकले बिना नहीं रहेगा ।और शुभेच्छा तो तात्कालिक फल है ही । "

    लेखक को इस अवसर का एक प्रसंग प्यारेलाल ने बताया था । एक श्रमिक ने गांधीजी को अपना पेट दिखा कर उनसे कहा, " देखिये आपके बहिष्कार से हमारे पेटमें एक एक इंच जितने गड्ढे पड़ गये हैं । " बापूने करुणा भरी आवाजमें कहा , " यह सच है भाई, पर हमारे करोडों के पेटमें बित्ते - बित्ते गहरे गड्ढे पड़ गये हैं सो मत भूलना । "

    महादेवभाई ने एक बेरोजगार मजदूर को अपने किसी साथी से यह कहते सुना था : "मैं बेकार हूँ । लेकिन अगर हिन्दुस्तानमें होता तो वही बात कहता जो गांधी कह रहे हैं । "

    ज्यॉर्ज बर्नार्ड शॉ की लम्बे अर्से से गांधीसे मिलने इच्छा थी । वैसे वे खुद संकोचशील व्यक्ति के नाते मशहूर नहीं थे , लेकिन गांधीजी से मिलने में काफी संकोच अनुभव कर रहे थे। गांधीजी के साथ प्राय: घण्टे भर बैठे होंगे । उन्होंने दुनिया भर की बातें- नृतत्वशास्त्र , धर्म , राजनीति , अर्थनीति के विषय छिड़े । उनकी बातों में विनोद और कटाक्ष का होना अवश्यंभावि था । उन्होंने कहा , ' आपके बारेमें मैं कुछ जानता था ।मैंने यह महसूस किया कि आप भी हमारे समानधर्मी हैं । हमारा वर्ग दुनिया में बहुत छोटा है । ' गोलमेज परिषद के बारेमें एक प्रश्न पूछे बिना वे नहीं रह पाये : ' यह परिषद आपके धीरज की कसौटी नहीं करती ?'  गांधीजी   दु:ख के साथ कबूल करना पड़ा , ' उसमें पारावार धैर्य की जरूरत पड़ती है । सारी चीज  एक बहुत बड़ा इन्द्रजाल है । जो लच्छेदार भाषण हमें सुनाये जाते हैं,वे तो केवल समय बिताने के लिए होते हैं । मैं उनसे पूछता हूँ कि अपने मन की बात साफ़ बोल डाल कर अपनी नीति क्यों घोषित नहीं करते हो ? और हमें पसंदगी क्यों नहीं करने देते ? लेकिन जान पड़ता है कि ऐसा करना अंग्रेजों के राजनैतिक स्वभाव में नहीं है । उनको तो लम्बी और टेढ़ी - मेड़ी राह पर चलना पड़ता है ।'

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    विख्यात साहित्यिक एडवर्ड तॉमसन ने एक बैठक का वर्णन यों किया है :

मैंने एक बार एक ऐसी मंडली में , जिसमें बालियॉल कॉलेज के अध्यक्ष गिल्बर्ट मरे , सर माइकल सेडलर और पी.सी. ल्योन जैसे धुरंधर थे , तीन तीन घण्टे तक गांधी को मोरचा सम्हालते देखा है । उनसे प्रश्न किए गए और परिप्रश्न किए गए । वह काफ़ी कठिन कसौटी थी । लेकिन उन्होंने क्षण भर भी आगा पीछा नहीं किया था।यह सोचते बैठे नहीं रहे कि क्या जवाब दें । उनका खुद पर संपूर्ण अंकुश था और उनकी सेहत देख मुझे इस बात का पूरा विश्वास हुआ कि इस मामलेमें सॉक्रेटीस के बाद और कोई पैदा नहीं हुआ जो इनकी बराबरी कर सके । घड़ीभर मैंने अपने आपको उनकी जगह रखा जिन्हें एक जमाने में इस अभेद्य शांति और स्थिर मतिका मुकाबला करना पड़ा होगा , तब मैं यह समझ पाया कि एथेन्स के लोगोंने शहादत का वरण किए हुए इस दलीलबाज को ज़हर क्यों पिलाया होगा । ।"

    गांधीजीने ऑक्स्फॉर्डमें वहाँ के बौद्धिकों से कहा , ' अच्छा, तो आप हम पर विश्वास नहीं रखेंगे ? तब हमें भूल करने की स्वतंत्रता दीजिये । यह कौन कह सकेगा कि अगर हम अपने प्रश्न आज नहीं सम्हाल सकेंगे तो फिर कब सम्हालेंगे? बल्कि इससे विपरीत मेरा तो यह कहना है कि हमारी अव्यवस्था का कारण तो ब्रिटिश राज है , क्योंकि आप ही ने 'बांटो और राज करो' के सिद्धान्त के अनुसार हम पर राज किया है ।

    जब गांधीजी ने यह सुना कि विख्यात हास्य-नट चार्ली चैप्लिन उनसे मिलना चाहते हैं तो पहला प्रश्न किया कि ये सज्जन कौन हैं ? इस विषय में महादेवभाई ने यह स्पष्ट किया है कि ' शायद ही यह बात कोई सच माने। अनेक वर्षों से गांधीजी का जीवन ऐसा हो गया है कि खुदके लिए जो कुछ तय कर रखा है वह करते करते जो चीजें सामने आये , उनको छोड़ कर और कुछ भी देखने या सुनने का उनके पास वक़्त नहीं बच पाता ।' मि. चैप्लिन ईस्ट एन्ड में ही रहते थे । वे आम लोगों में एक बन कर रहे हैं । उनके विषय में एच. जी. वेल्स ने यह कहा है कि उन्होंने इन लोगों को बोलना सिखाया । यह सुनकर गांधीजी तुरंत उनसे मिलने को राजी हो गये । मि. चैप्लिन ने पहला प्रश्न यह किया कि गांधीजी यंत्र का विरोध क्यों करते हैं । गांधीजी को रामनाम बोलने में थकान भले लगे चर्खे के बारे में  बोलने में नहीं  लगती थी। गांधीजी ने हिन्द के किसानों की अर्ध-बेकारी की बात बता कर कहा कि उन के लिए कोई पूरक उद्योग दिए बिना कोई चारा नहीं है । चैप्लिन ने कहा कि मतलब सिर्फ कपड़ों के बारेमें यह विचार है । गांधीजी ने 'हाँ' कह कर यह विचार समझाया कि हर प्रजा को अपने अन्नवस्त्र स्वयं पैदा करने चाहिए ।

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  ईटन के विद्यालय में गांधी जी ने कहा आपमें से कई भविष्य में प्रधान मंत्री और सेनापति बनेंगे । इसलिए अभी, जिस समय आपका चरित्र गठित ही हो रहा है तब आपके हृदय में प्रवेश करना आसान मानता हूँ । मैं उसके लिए इन्तेज़ार हूँ । आपको जो गलत इतिहास परंपरा से सिखाया जाता है उसके खिलाफ़ मैं आपके सामने कुछ हकीकतें रखना चाहता हूँ । मैं आपको साम्राज्य-शासक नहीं मानता वरन जिस राष्ट्र ने दूसरे राष्ट्र को लूटना बंद किया होगा और अपने शस्त्रबल से नहीं , बल्कि नीतिबल से जगत की शांति का रक्षक बना होगा उस राष्ट्र के प्रजाजन मानता हूं ।

    सम्प्रदायवाद का भूत अधिकतर तो शहरों में ही है । अंग्रेज मंत्रीमंडल स्वतंत्रता के जिस सवाल को जानबूझकर दूर रखना चाहता है उसके आगे यह साम्प्रदायिक प्रश्न किसी बिसातमें नहीं है । वे भूल जाते हैं कि असंतोषी बगावत करने वाले हिंद को वे लम्बे अर्से तक अपने कब्जेमें नहीं रख सकेंगे । यह साफ़ है कि हमारी बग़ावत अहिंसक है, लेकिन वह बगावत तो है ही ।

    आप इस सवाल का साम्प्रदायिक दृष्टि से अध्ययन करेंगे तो उससे आपको कोई लाभ नहीं होगा । और जब आप दिल दहला देने वाली तफ़सीलोंमें जायेंगे तब आप यह सोचेंगे कि तेम्स नदी में डूब मरें तो अच्छा ।

    आप इतिहास का अध्ययन कीजिए। करोड़ों लोगोंने अहिंसा स्वीकारने का निश्चय किस प्रकार किया और उस निर्णय पर किस प्रकार डटे रहे उस बड़े सवाल का अध्ययन कीजिए । मनुष्यके पशुस्वभाव का अध्ययन मत कीजिए, मगर मनुष्यकी आत्मा के वैभव का अध्ययन की जिए। साम्प्रदायिक झगड़े में पड़े लोग पागलखाने के बाशिंदों जैसे हैं ।लेकिन जो लोग स्वदेश की मुक्ति की वास्ते किसी को हानि पहुँचाये बिना अपने प्राण की आहुति देते हैं उनका निरीक्षण कीजिए । आत्मा की आवाज का, प्रेमधर्म का अनुसरण करनेवाले मनुष्यों का अध्ययन कीजिए, ताकि बड़े होने पर आप अपनी विरासत को सुधार सकें ।

    आपका राष्ट्र हम पर अधिकार चला रहा है , उसमें आपके लिए कोई गर्व करने लायक बात हो नहीं सकती । गुलाम को बांधनेवाला खुद न बँधा हो , ऐसा कभी हुआ नहीं ।  ..इंग्लैण्ड और हिंद के बीच आज जो संबंध है वह अतीव पापी संबंध है, अतिशय अस्वाभाविक संबंध है । स्वतंत्रता प्राप्त करने का हमारा स्वाभाविक अधिकार है और हमने जो तपस्या की है , जो कष्ट सहे हैं उससे हमारा वह हक दुगुना हुआ है । मैं चाहूंगा कि आप जब बड़े हों तब अपने राष्ट्र्को लुटेरेपन के पापमें से मुक्त कर उसकी कीर्तिमें अद्वितीय योगदान दें । "

[ जारी ]  

 

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