गुरुवार, फ़रवरी 08, 2007

वैश्वीकरण : देश रक्षा और शासक पार्टियाँ : किशन पटनायक

गत प्रविष्टी से आगे : देश - रक्षा में हथियारों का प्रमुख स्थान नहीं । अगर आप राजनीतिमें , कूटनीति में , अर्थनीतिमें सब कुछ समर्पित करते जाएंगे , तो लड़ने के लिए क्या रह जाता है ? आप अपने उद्योगों को , खदानों को , व्यापार को , भूमि और बंदरगाहोंपर अधिकार को , बैंक और बीमा को विदेशी शक्तियों को समर्पित करने के लिए तैयार हैं , तो परमाणु बम से किन चीजों की रक्षा करना चाहते हैं ?

विदेशी पूँजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से हमारा कैसा सम्पर्क रहेगा , यह केवल वित्तमंत्री का विषय नहीं है । देश - रक्षा का सवाल इससे जुड़ा हुआ है क्योंकि सम्राज्यवादी शक्तियाँ विश्वबैंक , मुद्राकोष जैसी आर्थिक संस्थाओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से काम कर रही हैं , उनका मुकाबला हम कैसे करें और अपने राष्ट्र को गुलामी से कैसे बचायें , इसकी रणनीति बनाने वाला कोई विभाग हमारी सरकार का नहीं है। प्रतिरक्षा विभाग केवल सैनिक गतिविधियों से संबंधित है । विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री का कार्यालय भी आर्थिक साम्राज्यवाद के प्रतिकार के बारे में कोई गम्भीर चर्चा नहीं करते हैं । इसका कारण यह है कि देश की शासक पार्टियाँ साम्राज्यवाद के प्रति नरम रुख अपना रही है ।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रीय जागरण और स्वाधीनता आंदोलन में सबसे बड़ी भूमिका कांग्रेस दल की रही ।लेकिन कांग्रेस का चारित्रिक पतन हो चुका है और जनाधार भी छिन्न-भिन्न हो चुका है । फिर भी इसकी शासक दल वाली हैसियत बनी हुई है । राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा शासक दल है भारतीय जनता पार्टी । देश के लिए यह एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग है कि साम्राज्यवाद की चुनौती के सामने इन दोनों दलों की नीति झुकने की है ।दोनों का राजनैतिक चरित्र मीरजाफ़र के जैसा है ।यहाँ पलासी युद्ध के मीरजाफ़र की बात हम नहीं करते हैं ।हम नवाब मीरजाफ़र की बात कर रहे हैं - जो कंपनी की माँगों को पूरा करने के लिए तैयार हो जाता है । अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गाँधी दोनों की भूमिका इस वक्त वही है । पेटेंट और बीमा संबंधी विधेयकों के सन्दर्भ में यह बात साबित हो गयी । दोनों को ले कर कुछ - कुछ आश्चर्य भी होता है ।कांग्रेस को लेकर इसलिए आश्चर्य है कि कांग्रेस मुख्य प्रतिपक्षी पार्टी थी (लेख मई,१९९९ का है), और शासक पार्टी (भाजपा) को इस मुद्दे पर अप्रिय करने का एक बड़ा मौका था । कांग्रेस ने यह मौका छोड़ दिया। इससे अंदाज होता है कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इन विधेयकों को प्रेरित कराने के लिए इतना अधिक दबाव पैदा कर रही हैं कि प्रतिपक्ष के दल को भी शासक दल द्वारा लाये गये विधेयकों का समर्थन करना पड़ रहा है ।

भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के पहले भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग पेटेंट तथा बीमा विधेयकों के विरोधी थे । भाजपा और रा. स्व. संघ ले लोगों का प्रशिक्षण ऐसा हुआ है कि वे राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता में फर्क नहीं कर पाते हैं । उनकी साम्प्रदायिक भावना ज्यादा प्रबल है और दबाव पड़ने पर उनका राष्ट्रवाद दब जाता है । और यही दृश्य देखने को मिला जब बीमा विधेयक को लेकर भाजपा के अन्दर विवाद खड़ा हुआ ।

इसमें कोई शक नहीं कि विदेशी शक्तियों का दबाव बहुत पड़ता है । लेकिन यह कहकर कायरता का समर्थन नहीं किया जा सकता । भारत की तुलना में चीन के नेतृत्व को अमेरिका का ज्यादा (या उतना ही) दबाव झेलना पड़ता है । लेकिन चीन का नेतृत्व दबंग है। चीन की किसी एक बात पर प्रशंसा होनी चाहिए तो उसके राष्ट्रवादी दबंगपन की होनी चाहिए । चीन सरकार की आर्थिक नीतियाँ गलत दिशा में जा रही हैं;फिर भी चीन की स्थिति तीसरी दुनिया के अन्य सभी देशों से बेहतर है ,कारण चीन का राष्ट्रवाद साम्राज्यवादी धमकी से दबता नहीं है ।अभी हाल में चीन के प्रधानमंत्री झुग रोंगजी अमेरिका गये थे ।चीन पर अमरीकी आरोपों का जवाब देते हुए झुग ने राष्ट्रपति क्लिंटन और उनके मंत्रियों को ऐसी खरी बात सुनाई कि अंग्रेजी अखबार वाले लिखते हैं क्लिंटन की बोलती बन्द हो गयी । श्री झुग अच्छी अंग्रेजी बोल सकते हैं , लेकिन अमरीका में उन्होंने अपनी भाषा में बात की ।क्या भारत का राजनैतिक नेतृत्व चीन से राष्ट्रवाद और स्वाभिमान की सीख ले सकता है ? देश रक्षा स्वाभिमान से शुरु होती है ।जब भारत में डंकल प्रस्ताव और विश्वव्यापार संगठन में पर बहस चल रही थी तो लचर दिमागवाले बुद्धिजीवी क्या कहते थे ? वे कहते थे कि देखो , चीन भी विश्वव्यापार संगठन में जाने की कोशिश कर रहा है । तो हम पीछे क्यों रहें ?ऐसा सोचने वालों का देश पीछे रहेगा ।चीन का विदेशी व्यापार भारत से अधिक मजबूत है ।चीन ने अभी तक विश्वव्यापार संगठन में प्रवेश नहीं किया , क्योंकि वह अपनी शर्त पर शामिल होना चाहता है । उसकी शर्त मानना अमरीका को मुश्किल पड़ रहा है ।इस बात को लेकर भारत के समाचारपत्र चीन की तारीफ क्यों नहीं करते हैं ?

पाकिस्तान और चीन में से कौन बड़ा दुश्मन है - यह एक गौण प्रश्न है । संभवत: हमारी उलझन दोनों से एक जैसी है । हमारा मुख्य संघर्ष साम्राज्यवादी शक्तियों से है , क्योंकि उनका हमला हमारे राष्ट्रवाद और स्वाभिमान पर है । हमारी राष्ट्र भावना को कमजोर करने के लिए वे सांस्कृतिक हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं ।अगर साम्राज्यवादी शक्तियों से हम संघर्ष कर पाएंगे , तो पाकिस्तान और चीन से संबंध भी सुधर सकेगा ।

भारत की विदेश नीति हमेशा कमजोर रही है ।फिर भी कुछ समय तक साम्राज्यवादी शक्तियों का प्रतिरोध हमारी विदेशनीति का एक पहलू रहा ।निर्गुट सम्मेलन को इसी के लिए संचालित किया जाता रहा । लेकिन निर्गुट सम्मेलन में अपनि भूमिका अदा करने के लिए भारत का नेतृत्व सोवियत रूस पर निर्भर हो गया और जब सोवियत रूस का पतन हुआ,तब निर्गुट सम्मेलन भी प्रभावहीन हो गया । उसके स्थान पर कोई नया अंतर्राष्ट्रीय ढ़ाँचा बनाया नहीं गया है । तब से साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध भारत की कोई रणनीति नहीं रह गयी है । सार्क देशों को मिलाकर हो , या एशिया ,अफ़्रीका और लातिनी अमरीका के कई देशों

को लेकर हो- एक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का ढ़ाँचा बनना ही चाहिए । इस संबंध में चीन की दूर दृष्टि में भी कमी है । केवल अपने देश की विशालता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के बल पर चीन लम्बे समय तक साम्राज्यवादियों का प्रतिरोध नहीं कर सकेगा ।एक अंतर्राष्ट्रीय ढ़ाँचा बनाने के लिए चीन पहल करेगा तो पड़ोसियों से भी उसका संपर्क ज्यादा नरम और भाईचारा वाला होगा । मलेशिया के मोहम्मद महातीर भी साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रतिकार के लिए सचेत और मुखर रहते हैं ।उन्हें भी चाहिए कि एक नये अंतर्राष्ट्रीय ढाँचे की पहल करें ।(जारी,अगला: जगतीकरण क्या है? )

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