मंगलवार, जुलाई 17, 2007

दिल्ली चिट्ठाकार - मिलन : एक अ-रपट

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    चिट्ठाकारी से जुड़े पत्रकार , छात्र , गृहणियाँ ,व्यवसायी ,अध्यापक और गीक १४ जुलाई ,'०७ को दिल्ली में मिले । इस माध्यम से जुड़े इन विविध पृष्टभूमि के लोगों की बातचीत में भी विविधता थी लेकिन एक अन्तर्धारा सभी को जोड़ रही थी । रचनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से प्राप्त आत्म-तुष्टि के साथ सबने विचार रखे और सुने ।

    संजाल का कोई मालिक कोई व्यक्ति,सरकार, कम्पनी या समूह नहीं है ।इससे जुड़े व्यवसाय में भले ही दानवाकार कम्पनियाँ मौजूद हों ।टेलिफोन कम्पनियाँ ,इन्टरनेट पर सेवाएँ देने वाली कम्पनियाँ और इन्टरनेट के सेवा देने वाली कम्पनियाँ । इन्टरनेट पर कम्पनियों के नियंत्रण का प्रयास पूँजीवाद के झण्डाबरदार देश अमेरिका में भी सफल नहीं हो सका है । ऐसी साजिशों के खिलाफ़ अभियान काफ़ी व्यापक और तीव्र रहे हैं और संसद और अमरीकी संसद के निर्णय को प्रभावित करने में भी वे सफल रहे हैं ।

    इस माध्यम से जुड़ा कोई भी तंत्र लोकमत की उपेक्षा करे यह मुमकिन नहीं है ।तंत्र से जुड़े प्रबन्धक लिंकन की प्रसिद्ध उक्ति पर ध्यान न दें , तब ?

" आप लोकतंत्र में कुछ लोगों को हमेशा के लिए मूर्ख बना सकते हैं , सभी लोगों को कुछ समय के लिए मूर्ख बना सकते हैं परन्तु सभी लोगों को हमेशा के लिए मूर्ख नहीं बना सकते हैं । "

    हिन्दी चिट्ठेकारी से जुड़े जिन लोगों का जमावड़ा १४ जुलाई को दिल्ली में हुआ उन सब की बातों से यह यक़ीन जरूर पुख़्ता हुआ कि इस जमात को हमेशा के लिए मूर्ख बना कर रखना असम्भव है ।

स्फुट झलकियाँ ( जिन से मैं प्रभावित हुआ )

'कैफ़े कॉफ़ी डे' में कॉफ़ी का बिल चुकाया जा चुका था । अमित गुप्ता को कवयित्री रचना सिंह ने अपना सहयोग देना चाहा तब अमित ने कहा कि ' महिलाओं से हम पहले आर्थिक सहयोग नहीं लेना चाहते।' रचनाजी द्वारा इस विभेदकारी रवैए पर गम्भीर आपत्ति जताने के बाद अमित ने पैसे लिए।

प्रतिष्ठित चिट्ठाकार घुघूती बासूती ने चिट्ठेकारी से जुड़े मन्दकों-प्रबन्धकों से उम्मीद की कि वे ज्यादा सहनशील ,उदार और धैर्यवान बनें।

स्तंभकार आलोक पुराणिक ने घोषणा की कि वे पाँच लाख पाठक पाने के लक्ष्य के साथ चिट्ठाकारी कर रहे हैं । अमर-उजाला के वित्तीय दैनिक 'कारोबार' के जमाने में सलाहकार-सम्पादक के रूप में उनका घोषित लक्ष्य था सालाना एक करोड़ रुपए कमाना । चिट्ठेकारी के बारे में उनके खुले बाजार की थीसिस का प्रतिवाद में 'कॉफ़ी-हाउस' के भुपेन ने उनसे पूछा कि क्या वे सहकारी प्रयासों को इस खाके में में शामिल करेंगे? आलोकजी ने इस संशोधन पर अनापत्ति प्रकट की।

लगता है सृजन-शिल्पी अपनी नौकरी में सोमनाथ चटर्जी और शेखावत के सदन संचालन को बहुत गौर से देखते हैं ।शिष्टतापूर्ण आग्रह से चुप कराने के उनके औपचारिक वचनों में सोमनाथजी और शेखावतजी की झलक देखी जा सकती थी ।

उत्तर-आधुनिकता के दौर में प्रचलित 'यदि उन्हें परास्त न कर सको तो उनके साथ शामिल हो जाओ' सिद्धान्त को भी उन्होंने आत्मसात कर लिया है। उनकी धार्मिक भावनाओं के आहत मन ने नारद-संचालन पर व्यापक प्रश्न उठाये थे, उनका उत्तर मिला हो तो उसकी सार्वजनिक सूचना नहीं हुई।फिलहाल, 'नारद-पत्रिका' के वे सम्पादक हैं ।

सुनीता शानू की कम्पनी की निर्यात-श्रेणी की चाय की मसिजीवी ने तहे -दिल से प्रशंसा की।

"कुछ ही पलों में पोस्ट एग्रीगेटर पर' के सन्दर्भ में वरिष्ट चिट्ठेकार जगदीश भाटिया ने मौजू राय व्यक्त की - " क्या हम इतनी अल्पावधि की प्रासंगिकता वाला लेखन कर रहे हैं ?"

नीरज दीवान ने मराठी विकीपीडिया की प्रशंसा की तथा हिन्दी विकीपीडिया की विपन्नता पर चिन्ता व्यक्त की ।

अविनाश ने चिट्ठों पर प्रस्तुत सामग्री की गुणवत्ता की तकनीकी उपायों की तुलना में अधिक अहमियत पर जोर दिया ।

इस बातचीत के मेजबान 'हिन्दी गियर' और ब्लॉग वाणी के मैथिली गुप्त ने बहुत शिद्दत से कहा कि नेट पर हिन्दी-हित में व्यक्ति भी बड़े योगदान दे सकता है।(यह जरूरी नहीं कि ऐसे योगदान सामूहिक ही हों।)

इन्जीनियरिंग के छात्र रहे शैलेश भारतवासी के हिन्दी चिट्ठेकारी के प्रचार-प्रसार के प्रयासों की प्रशंसा हुई । फैजाबाद-इलाहाबाद में उन्होंने हाल ही में दौरा किया है ।

इलाहाबाद में  उनके साथ हुई बैठक की पूर्व-सूचना चिट्ठों पर दी गई थी ।इलाहाबाद-वासी चिट्ठेकारों को भी ई-मेल पर सूचना दी गई थी। चिट्ठाकारों में सिर्फ प्रमेन्द्र पहुँचे और शैलेश ने वहाँ पहुँचे तरुणों को हिन्दी चिट्ठेकारी के बारे में बताया ।

एक बार प्रबन्धशास्त्र के प्राध्यापक 'भारतीयम' के अरविन्द चतुर्वेदी को बाजार में हिन्दी टाइपिंग की सुविधा नहीं मिली।संजाल पर खोज-खोज कर उन्होंने हिन्दी टंकण के औजार अपने कम्प्यूटर पर डाले और तब से हिन्दी में काम शुरु कर दिया ।

 

गुरुवार, जुलाई 12, 2007

'चिट्ठाजगत' का प्रतिदावा

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'चिट्ठाजगत' का प्रतिदावा यहाँ प्रसार के लिए दिया जा रहा है । प्रतिदावों की तुलना करने पर नीतियों में अन्तर स्पष्ट हो जाता है ।

प्रतिदावा

 

चिट्ठाजगत एक स्वचालित सङकलक (एग्रीगेटर) है जो कि सार्वजनिक xml बौछारों (फ़ीड) से प्रविष्टियों को संग्रहित कर प्रस्तुत करता है।

चिट्ठाजगत का उद्देश्य है मुक्त रूप से निज अभिव्यक्ति को जालस्थल पर प्रस्तुत करने की स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए धड़ाधड़ बढ़ती प्रविष्टियों को सरलता से खोज पाने की सुविधा प्रदान करते रहना।

चिट्ठाजगत का इन प्रविष्टियों के रचयिताओं से सम्बद्ध नहीं है और ना ही चिट्ठाजगत इसके पाठ के लिये उत्तरदायी है, और न ही चिट्ठे हमारे विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

चिट्ठाजगत पर चिट्ठा शामिल करने की एक शर्त - चिट्ठे के लेख-शीर्षक हिन्दी में हों, और हाँ, आप ऐसा चिट्ठा भी शामिल कर सकते हैं जिसमें और भाषाओं में भी लिखा हो, चिट्ठाजगत का तंत्र उस में से हिन्दी लेख छाँट लेगा।

मंगलवार, जुलाई 10, 2007

' आप चिट्ठाजगत पर क्या क्या कर सकते हैं'

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हिन्दी का पहला चिट्ठा लिखने वाले आलोक कुमार , विपुल जैन तथा कुलप्रीत सिंह मिल कर चिट्ठाजगत नामक बेहद उपयोगी एग्रीगेटर चला रहे हैं । हिन्दी के समस्त चिट्ठेकार अपने पाठकों की तादाद बढ़ाने के लिए अधिकाधिक एग्रीगेटर्स में पंजीकरण करा लें ,यह एक बुनियादी तथ्य है ।

यहाँ चिट्ठाजगत के जालस्थल से साभार, इस एग्रीगेटर पर हर चिट्ठेकार को मिलने वाली अभूतपूर्व सुविधाओं का हवाला दिया जा रहा है । पंजीकरण हेतु चिट्ठाजगत के जाल-स्थल पर शीघ्र पहुँचें ।

आप चिट्ठाजगत पर क्या-क्या कर सकते हैं।

    चिट्ठा शामिल करने की हमारी एक शर्त - चिट्ठे के लेख-शीर्षक हिन्दी में हों, और हाँ, आप ऐसा चिट्ठा भी शामिल कर सकते हैं जिसमें और भाषाओं में भी लिखा हो, हमारा तंत्र उस में से हिन्दी लेख छाँट लेगा।
आप चिट्ठाजगत पर ये सब कर सकते हैं।
विस्तृत चिट्ठा खोज
    आप पाँच विकल्पों “पूर्ण प्रविष्टि”, “प्रविष्टि शीर्षक”, “प्रविष्टि विवरण”, “चिट्ठाकार”, “चिट्ठा शीर्षक” में खोज सकते हैं। आप खोज को दो तारिखों में सीमित भी कर सकते हैं।
पसंदीदा/सूचक सूची
    लाल दिल <span title=लाल दिल" src="http://chitthajagat.in/images/dil.gif"> बटन दबाएँ और लेख, चिट्ठे को पसंद सूची में जोड़ें।,
    हरी घण्टी <span title=हरी घण्टी" src="http://chitthajagat.in/images/ghanti.gif"> दबाएँ और चिट्ठे, सांकेतिकशब्द को सूचक सूची में जोड़ें।
    पसंदीदा “चिट्ठा सूची”,
    पसंदीदा “लेख सूची”,
    मनपसंद चिट्ठे से नए लेख का सूचक,
    सांकेतिकशब्द सम्बन्धित नए लेखों का सूचक
मेरा खाता
    “मैं” में अपने बारे में लिखें और कूटशब्द बदलें,
    “मेरी तस्वीर” में तस्वीर चढ़ाएँ,
    “मेरे चिट्ठे/मेरे औज़ार” में अपने चिट्ठे शामिल करें और अधिकृत करें, चिट्ठाकार उपयोगी औज़ार कड़ी लें,
    “पसंदीदा चिट्ठे, पसंदीदा लेख, चिट्ठे सूचक, सांकेतिकशब्द सूचक” में आपके द्वारा बनाई गई सूची का प्रबन्ध करें।
सांकेतिकशब्द सम्बन्धित लेखों को एक साथ देखना
चिट्ठों को सक्रियता क्रं० देना
पिछले १० दिनों से धड़ाधड़ छाप रहे चिट्ठाकारों की सूची
    बगल पट्टी देखें
चिट्ठाकार के लेख एक साथ देखना
किसी भी चिट्ठे के लेख एक साथ देखना
किसी भी चिट्ठे का उदाहरण देने वाले लेखों को साथ देखना
दैनिक सक्रियता, किसी भी दिन के लेखों पर आसानी से जाना
चिट्ठाकार उपयोगी औज़ार

शनिवार, जुलाई 07, 2007

गीकों की 'गूँगी कबड्डी'

 

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' धुरविरोधी ' के चिट्ठे पर जीतू ने कहा था , 

ये सच है कि पहले भी इस तरह की भाषा का प्रयोग होता रहा है, लेकिन हमेशा हम चुप नही रह सकते। कभी ना कभी तो निर्णय लिया ही जाना था।

ये मेरा आखिरी स्पष्टीकरण है, इसके बाद नारद की तरफ़ से कोई स्पष्टीकरण नही आएगा।

    कल जीतू ने 'आखिरी' के बाद फिर बोला तब हमें  हमारे अंचल में कबड्डी का जो प्रचलित रूप है उसके एक मजेदार किन्तु हिन्सक नियम की याद आ गयी । जब किसी पक्ष का सिर्फ़ एक खिलाड़ी बचा रह जाता तब उसे मौन धारण कर दूसरे पाले में जाने का विकल्प दिया जाता । इस विकल्प के तहत उस खिलाड़ी को 'कबड्डी - कबड्डी' या 'हू-तू-तू' बोलने के बजाय मौन हो कर दूसरे पाले में जाना पड़ता और सामने वाले पक्ष द्वारा पकड़ कर मौन तोड़वाने पर ही वह बाहर होता ।बगैर मौन तोड़े  सामने वाले पक्ष के जितने खिलाड़ियों को छू कर अपने पाले में वापस हो जाने पर उसके पक्ष के उतने खिलाड़ी 'जिन्दा' हो जाते, जितनों को 'गूँगा' छू कर आया होता ।

    काशी में 'कबड्डी-कबड्डी' या 'हू-तू-तू' के अलावा कुछ छन्दमय बोलों का इस्तेमाल भी होता रहा है , जैसे :

छाल कबड्डी आला

हनुमानजी क पाला

गदा घींच-घींच के मारा

गदा घींच- घींच के मारा,

मारा-मारा-मारा .....

अथवा

खटिया कचाऊ ,

हम तोर बाऊ ,

बाऊ-बाऊ-बाऊ....

तो 'गूँगी कबड्डी' में खिलाड़ी का मौन टूटा, यानि उसकी हो गयी हार ।

नारद-टीम के मौजूदा(चन्द्रशेखर जैसे चिर-अध्यक्ष रहे ,भले दल की मान्यता समाप्त हो गयी हो और खुद की सीट भी भाजपा या सपा के समर्थन से ही बचती हो) तथा चिर-समन्वयक जीतेन्द्र चौधरी के फिलवक्त दो सलाहकार हैं : देबाशीष और अनूप । 'नारद' पर चिट्ठों को प्रतिबन्धित करने के पुराने मामलों में वे रोक की अर्थहीनता के विरुद्ध स्पष्ट मत रखते आए हैं । 'मोहल्ला' पर रोक की माँग नामंजूर होने में भी ऐसा कुछ हुआ दिखता है। उस दौरान सुनील दीपक अपनी किसी यात्रा से लौट कर आए तब अनूप के स्टैन्ड को देख कर आश्वस्त हुए थे । उस वक्त नारद - संचालन पर बुनियादी सवाल उठाने वाले भी एक गुमटी दे कर एडजस्ट कर लिए गए । कुछ और काबिल-गीकों को 'सर्वज्ञ' बना लिया गया ।

    बहरहाल , हिन्दी चिट्ठालोक के सभी 'सामूहिक' प्रयासों में  दुकानदारियाँ तजबीजी जा सकती हैं । इन दुकानदारियों के अपने तजुर्बे को पेश कर दूँ । गीकों के अहम के टन्टे गौरतलब हैं :

गूगल-समूह 'चिट्ठाकार' पर मैं 'भाषा पर गाँधी' डाल रहा था । समूह के कई सदस्य अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। अचानक जीतू का प्रादुर्भाव हुआ ,ऐसे :

 

From:
जीतू Jitu - Date:
Sun, Sep 17 2006 9:54 am
Email:
"जीतू Jitu" ...@gmail.com>
साथियों, चर्चा गम्भीर होती जा रही है, आइए परिचर्चा < http://www.akshargram.com/paricharcha> पर इसे आगे बढाएं, यहाँ सिर्फ़ ६ या ७ लोग ही चर्चा कर रहे है, इसलिए चिट्ठाकार फोरम इसके लिए मुफ़ीद जगह नही। इस चर्चा का अगला थ्रेड परिचर्चा पर ही खोलिए, यहाँ मत करिए। धन्यवाद।

यानि 'माल' बिकाऊ दिखा तो देबाशीष के 'चिट्ठाकार' से अमित गुप्ता के 'परिचर्चा' पर आने की सलाह दी। 'परिचर्चा' के 'ज्वलन्त मुद्दों' के तहत वह बहस जरूर लोकप्रिय बनी(३१९९ बार देखा गया और ५१ उत्तर आये) लेकिन वहाँ भी दुकानदार की गीक-समझदारी और गीकी-अहंकार प्रकट हुआ ऐसे :

अमित गुप्ता स्वयं उस बहस में इस शैली में प्रकट हुए : रंजीत बाऊ, मुझे आपकी बात का उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं है, कुछ बोल दिया तो गश खाकर गिर पड़ोगे, क्योंकि दुनिया का सीधा सा उसूल है, दिमाग वाली बातें उन्हीं को समझ नहीं आती जो या तो मूर्ख हैं या दिमाग का प्रयोग नहीं करते। या

'पर वह बाद में, अभी किसी और को यह गाना गाना हो तो गा सकता है, हम तो अभी आराम से बैठे मौज ले रहे हैं, बाद में अपना असला निकालेंगे!!

घुघूती बासूती ने 'अहमदाबाद में प्रेमी-युगलों की पिटाई की थ्रेड शुरु की तो गीकी 'समझदारी' फिर बहस के आड़े आई।यह चर्चा १७३० बार देखी गयी थी और २५ उत्तर आये थे। बहस का संचालन करने में विफल अमित बोले:

 

यह थ्रेड अब अपने विषय और पथ से भटक गया है, इसलिए इसके अब चर्चा के लिए खुले रहने का कोई प्रायोजन नहीं है, इसलिए मैं इसे बन्द कर रहा हूँ।

 प्रियंकर को लिखना पड़ा :

samvaad63
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Re: क्या हमें कुछ नये नियम बनाने चाहिये ?

अमित भाई!
हम सरकार को सेंसरशिप के लिये कोसते हैं पर खुद ऐसा जघन्य काम करते हैं . आपने सिर्फ़ मेरे अकाउंट पर इस थ्रेड को 'रेमूव' करके बेहद शर्मनाक  काम किया है . मैं बहुत सामान्य आदमी हूं . कहीं से भी महान नहीं हूं . और न मुझे अपने अभिजात्य का इतना मुगालता है कि जो सच समझता हूं उसे कहने से हिचकूं . पर आप तो आवाज़ का ही गला घोंट रहे हैं. मेरी ही टिप्पणी पर ही प्रति-टिप्पणियां होंगी और मैं ही उन्हें न तो देख पाऊंगा और न ही जवाब दे पाऊंगा .
अगर ऐसा है तो आप मुझे सीधे कह सकते हैं . आखिर आप इस परिचर्चा के मालिक जो ठहरे . हां एक बात जरूर कहूंगा जब दुकान खोल कर बैठे हैं तो ग्राहक का चुनाव आप पर निर्भर नहीं करता . अब और कोई टिप्पणी नहीं करूंगा . यह लिंक सृजन शिल्पी के जरिये मिला उन्हें धन्यवाद देता हूं . अफ़लातून जी को भी . वरना मुझे तो पता ही नहीं चलता . पर चलिये तकनीकी के जरिये सच को दबाने का एक उदाहरण देख पाया यह क्या कम

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samvaad63
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Re: क्या हमें कुछ नये नियम बनाने चाहिये ?

'ताड पर मत चढो' , 'बेकार की बकबक', 'फालतू बकवास' , 'पता नहीं क्या बीमारी है'  यह तो अमित की खुद की बहस की भाषा का स्तर है . ऊपर से वे प्रबंधक और मंदक और न जाने क्या-क्या हैं . वही सबको नसीहत और चेतावनी देने वाले हैं. वही प्रतिवादी हैं,वही वकील हैं और वही न्यायाधीश भी . अब उनसे क्या कहा जाये .
नये साल की शुभकामनाएँ देता हूँ .


प्रियंकर भाई ने मुझे लिखा :

भाई अफ़लातून जी,

   बद्धमूल और जड़ विचारों वाले लोगों को कैसे समझाया जाए . यह मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है . सामान्यतः ऐसे लोग जब तक अति न कर दें  , टिप्पणी नहीं करता हूं . क्योंकि वे बहस नहीं चाहते . खुद चाहे जो लिख देंगे और फ़िर बहस समाप्ति की इकतरफ़ा घोषणा कर देंगे . खुद चाहे जो लिखेंगे और दूसरे पर माहौल खराब करने का आरोप लगाते हुए परिचर्चा का 'थ्रेड' बंद कर देने की घोषणा कर देंगे .

           यह टेक्नोलॉजी के सामाजिकी से दूर जाने का नतीज़ा है .  नये लोगों में तकनीकी ज्ञान तो खूब है पर समाज  के बारे में उनका ज्ञान बहुत सतही और छिछला है . इधर देश / समाज में  नये बनते इंजीनियरों में  भी कमाऊ 'टेक्नोब्रैट'   ज्यादा हैं . यह चलन कैसे रुकेगा, यह  मेरी समझ के बाहर है . उदारीकरण और भूमंडलीकरण के तहत बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इसे और बढा रही हैं . कितने इंजीनियरों ने गांधी की 'हिंद स्वराज' पढी होगी ? शायद नाम भी न सुना हो . तो उनसे क्या आशा करें .

      रहा बचा सब सांप्रदायिक सोच ने समाप्त कर दिया . यानी करेला और नीमचढ़ा .    यही स्थिति है . क्या करें ?

सादर ,

प्रियंकर

पुनश्च : अमित खुद तो अनाप-शनाप टिप्पणियां करता है और दूसरों को नसीहत देता है .  क्या किया जाये . नये बच्चे हैं . आत्मविश्वास से भरपूर पर अनुभव से रहित . अभी जीवन के धरम-धक्के खाये नही हैं इसलिये जोश कुछ ज्यादा है . वक्त सबको सिखा देता है . समीर लाल ने टिप्पणी वापस ले ली है . पंकज ने मुझे मेल किया था,जवाब दे दिया है .

'हिन्दी के लिए आपने क्या किया ?' अहंकार से मत्त गीक जब यह सार्वजनिक तौर पर पूछते हैं , तब क्या वे सोचते हैं कि सामने वाले के माँ या बाप में से कोई अँग्रेज होगा ?

 

From:
जीतू Jitu -Date:
Sat, Sep 16 2006 1:02 am
Email:
"जीतू Jitu" ...@gmail.com>

 

हिन्दी की दुर्दशा पर तो हर कोई रो लेता है, लेकिन अफलातून भाई (निजी तौर पर मत लीजिएगा, सभी पर लागू है), अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए, आपने हिन्दी को आगे बढाने के लिये क्या किया?

इसके उत्तर में मुझे लिखना पड़ा :

जीतूजी अब आपकी जिग्यासा पर - पारिवारिक पृष्टभूमि के कारण बचपन से हिन्दी,गुजराती,ऒडिया और बांग्ला पढ ,बोल लेता हूं.लिखता सिर्फ़ हिन्दी में हूं.अनुवाद, लेखों और भाषणों का ,इनसे और अंग्रेजी से करता हूं.'धर्मयुग','हिन्दुस्तान';'जनसत्ता'(सम्पादकीय पृष्ट के लेख) और फ़ीचर सेवाओं के जरिए भी लिखता हूं. १९७७ से १९८९ के विश्वविद्यालयी जीवन में काम काज की भाषा के तौर पर हिन्दी के प्रयोग के लिए आग्रह और १९६७ के 'अंग्रेजी हटाओ,भारतीय भाषा लाओ' की काशी की पृष्टभूमि के कारण इस बाबत कुछ सफलता भी मिलती थी.काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग मे हिन्दी में शोध प्रबन्ध जमा किया जा सकता है.१५ अगस्त २००६ से अब तक चार देशों मे रह रहे मात्र २३ लोगों को इंटरनेट पर हिन्दी पढना और लिखना बताया.

गीकी दम्भ से पीडित हो गिरिराज जैसे संवेदनशील सदस्य बोल उठते हैं :

amit wrote:

छोड़ो यार, किससे बहस कर रहे हो? ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपनी कही बात का विरोध करने वाले को गलत कह तर्कशास्त्र पढ़ाते हैं!!

गिरिराज :

 

आप इसी "कैटेगरी" में आते है अमित भाई, कभी वक्त मिले तो अपनी सारी पोस्ट दूबारा पढ़कर देखना।
सच कहूँ तो साहित्य प्रेम ने बांध रखा है वरना शायद अब तक अलविदा कह चूका होता परिचर्चा को ॰॰॰

मौजूदा प्रकरण में अनामदास ,प्रियंकर, प्रत्यक्षा , मसिजीवी और अभय जैसे परिपक्व लेखकों ने स्पष्ट राय रखी जो इस तरह की घटना के दूरगामी परिणाम देख सकते हैं । जीतेन्द्र चौधरी अब देबाशीष और अनूप जैसे सलाहकारों की राय से हम सब को अवगत करायें ताकि लगे कि अभी भी नारद एक समूह है ।