सोमवार, फ़रवरी 19, 2007

निजी जेल कंपनियों के कारनामे : दीपा फर्नाण्डीज़ : प्रस्तुति - अफ़लातून

करेक्शन्स कॉर्पोरेशन ऑफ़ अमेरिका (सी सी ए )

पिछली प्रविष्टी से आगे :कुप्रबन्ध और कलंक के इतिहास के बावजूद निजी जेल उद्योग की कंपनियों को नई जेलों के ठेके लगातार मिलते आए हैं। इनसे जुड़ी समस्याएं भी बदस्तूर जारी हैं ।आप्रवासी बन्दियों के वकील अब भी अपने मुवक्किलों से दुर्व्यवहार का मुद्दा उठाते हैं। इन वकीलों का आरोप है कि कंपनियाँ बन्दी रक्षकों को प्रशिक्षण देने के खर्च से तथा बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के मद में से पैसा बचाती हैं ।सरकार ने इन जेलों के प्रशासन पर निगरानी और नियंत्रण रखने में कोताही बरती है ।जेल प्रशासन द्वारा श्रम-शोषण की कारगुजारियों और बन्दियों को दी जाने वाली टेलिफोन सुविधा में कटौती का सरकार अनुमोदन करती है।

इराक के युद्ध में शामिल रहे पूर्व सैनिक फिलिप लुई जीन दुर्व्यवहार के प्रकरणों को कुछ तफ़सील से बताते हैं ।वे हेटी के मूलनिवासी हैं,पाँच वर्ष कि उम्र से अमेरिका में ही रहे हैं। इन्होंने फौज में काफ़ी शीघ्रता से तरक्की की । युद्ध के दौरान मिली पदोन्नति के आधार पर पुरस्कृत होने के लिए इराक से लौट कर इन्होंने प्रयास किया।उनके अधिकारियों ने उनके सेवा-दस्तावेज खंगालने शुरु किए तब पाया कि कभी उसे सैन्य अदालत द्वारा ३७ दिनों की सजा दी गई थी । सरकार ने इस तथ्य के आधार पर उसके विरुद्ध देश-निकाले का मामला शुरु कर दिया और लुई जीन को सी सी ए संचालित सैन डिएगो 'सुधार गृह' में पटक दिया।वहाँ के हालात और बर्ताव से वह भयभीत हो गए ।

" बन्दी रक्षक हम पर ऐसे चीखते-चिल्लाते थे,मानो हम बच्चे हों ।ऐसा न करने के लिए उन्हे कहने पर वे कुछ दिनों के लिए हमे 'तन्हाई' में रखने की धमकी देते और अक्सर यह धमकी लागू भी कर दी जाती थी । दो लोगों के लिए बने १२ x ७ फ़ुट की कोठरी में तीन लोगों को रखा जाता था ।ऐसा अक्सर होता था जब एक-दो बन्दियों को सबक सिखाने के चक्कर में सभी १०५ - ११५ अन्तेवासियों को खामियाजा भुगतना पड़ता था। कई बार इसके लिए बहाने भी नहीं खोजे जाते थे।

" मुझ से सम्पर्क रखने वाले एक बन्दी ने बताया कि उसके सामान की गार्ड ने चोरी की थी। हमे कम भोजन परोसा जाता था । जब हम रसोई प्रबन्धक से इसकी शिकायत करते तब वह कहती कि यह ही उचित मात्रा है । मेरे हिसाब से हमें दस या ग्यारह साल के बच्चों की खुराक दी जाती थी । कुछ गार्ड हमे कोसते थे।हमें छेड़ने के मकसद से वे टेलिविजन ऐसे रखते कि हमे सुनाई न पड़े ।हमारे मुक्त-समय के दौरान टेलिफोन चालू करने में वे जान-बूझकर देर लगाते ताकि हम अपने स्वजनों से बात न कर सकें। यह सब अपनी क्रूरता दिखाने के लिए वे करते । "

२००३ में स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग के महानिरीक्षक की एक रपट में विभिन्न जेलों में बन्द आप्रवासियों के प्रति बर्ताव की कड़ी निन्दा की गयी है - रपट का विषय - " ११ सितम्बर के बन्दी : ११ सितम्बर के हमलों की जाँच के दौरान आप्रवासन सम्बन्धी आरोपों में निरुद्ध परदेसियों के प्रति बर्ताव की समीक्षा "।उल्लंघन के मामलों में : बन्दियों के बुनियादी अधिकारों के रोजमर्रा हनन , शारीरिक एवं मानसिक उत्पीड़न , सेहत और चिकित्सा से वंचित किया जाना , जेलों में क्षमता से ज्यादा बन्दियों का होना तथा स्नान-शौचादि की सहूलियत का अभाव गौरतलब हैं ।

समस्याओं की लम्बी फेहरिस्त के बावजूद सी सी ए द्वारा निजीकरण को बढ़ावा देना और नए-नए अनुबन्ध हासिल करना बदस्तूर जारी है। " निजी जेल उद्योग द्वारा अपनी सेवा की माँग बढ़ाने के लिए राज्यों की विधायिका के सदस्यों पर हर तरह का दबाव डाला जाता है ताकि वे जेलों के निजीकरण का निर्णय लें । " ड्यूक विश्वविद्यालय की विधि-शोध-पत्रिका में शैरॉन डोलोविच का उक्त कथन है ।उन्होंने यह भी लिखा है कि - " कंपनियाँ विधायकों के बीच 'लॉबींग' करने तथा निजीकरण के एजेण्डा के हक में विधायकों की गतिविधियों के लिए चन्दा देने में माहिर हैं ।"

कुछ आलोचकों का आरोप है कि कंपनी की सफलता का ताल्लुक निर्वाचित प्रतिनिधियों से उसके प्रगाढ़ सम्बन्धों से है । यह कंपनी १९९७ से लगातार रिपब्लिकन पार्टी चन्दा देती आई है तथा कम्पनी के अधिकारियों और सरकारी अफसरों के काफ़ी अर्थपूर्ण सम्बन्ध हैं । संघीय कारागार ब्यूरो के पूर्व अध्यक्ष जे. माइकल क्विन्लैन पिछले दस वर्षों से सी सी ए के अधिकारी हैं । कंपनी का मुख्यालय जिस राज्य में स्थित है(टेनेसी) वहाँ की कम्पनी की मुख्य लॉबीस्ट की शादी वहाँ के विधानसभाध्यक्ष से हुई है । 'अमेरिकन लेजिस्लेटिव एक्सचेंज काउन्सिल' एक दकियानूसी समूह है जो सजा देने के दिशानिर्देश की नीतियों की बाबत अपना जोर लगाता है- सी सी ए इसका सदस्य है।

सी सी ए का धन्धा अच्छा चल रहा है । अपनी जेलों में वे जितने ज्यादा लोगों को ठूँसेंते हैं उतना धन्धे के लिए अच्छा है । "आप सब जानते हैं,प्रथम १०० बन्दियों में हमें आर्थिक तौर पर नुकसान होता है जबकि आखिरी १०० बन्दियों से हम ढ़ेर सारा पैसा कमाते हैं । ' सी सी ए के मुख्य वित्ताधिकारी ने यह बात २००६ की कंपनी की आम सभा में कही थी ।

वॉकेनहट

फ्लोरिडा स्थित वॉकेनहट एक प्रमुख सुरक्षा कंपनी है । ११ सितम्बर के न्यू यॉर्क के हमलों के बाद के वर्षों में यह कंपनी भी काफ़ी फली-फूली है । अपने बुरे रेकॉर्ड के बावजूद कई लाभप्रद सरकारी अनुबन्ध पाने में यह सफल रही है । सन २००१ के पहले सी सी ए की भाँति वॉकेनहट कम्पनी भी सब तरह के बन्दी-दुर्व्यवहार काण्डों के केन्द्र में थी : अल्पवयस्क बन्दियों से सेक्स के दौरान बन्दी रक्षक पकड़े गए थे , भीषण दुर्व्यवहारों की घटनाएं आम थीं तथा उनके सुधार गृहों में मृत्यु की घटनाएं असंगत तौर पर अधिक हुई थीं ।दुर्व्यवहार कि इन घटनाओं के प्रति वॉकेनहट के मुख्य कार्यपालक अधिकारी जॉर्ज ज़ोले क रवैया अत्यन्त हल्का और छिछोर रहा है। वॉकेनहट संचालित एक बाल सुधार गृह में एक १४ वर्षीय लड़की से लगातार बलात्कार का मामला सी बी एस टेलिविजन ने उद्घाटित किया था,दो गार्ड मामले में दोषी पाए गए थे। इस पर ज़ोले ने कहा, ' यह एक बेरहम धन्धा है।आखिर इन जेलों में कैद बच्चे किसी धार्मिक पाठशाला के सीधे-सादे विद्यार्थी तो नहीं हैं।" इससे अधिक चिन्ताजनक है कैदियों के आपसी संघर्ष में हुई हत्याओं का वॉकेनहट की जेलों का रेकॉर्ड। १९९८- '९९ में वॉकेनहट की न्यू मेक्सिको की जेलों में प्रति ४०० बन्दियों पर एक हत्या हुई थी जबकि उसी अवधि में अमेरिका की सभी जेलों की सम्मलित दर २२,००० पर एक हत्या की थी ।

इस सब पर कंपनी की सबसे उल्लेखनीय प्रतिक्रिया थी उसके द्वारा अपना नाम बदल कर जी ई ओ ग्रुप कर लेना ।मुखिया जॉर्ज ज़ोले अपने पद पर बरकरार हैं और नए-नए अनुबन्ध मिलना भी ।

जी ई ओ के अधिकारी कंपनी के व्यवसाय में आई सहसावृद्धि से गदगद हैं। सन १९९९ में संघीय सरकार द्वारा कंपनी को तीन प्रतिशत से कम बन्दी-शायिकाएं दी जती थीं,सात वर्ष बाद यह संख्या प्रति पाँच पर एक तक पहुँच गयी है । " व्यवसाय ने उल्लेखनीय करवट लिया है । अपराधी आप्रवासियों और अवैध आप्रवासियों को कैद में रखने के लिए सभी संघीय एजेन्सियाँ अब निजी कंपनियों पर मेहरबान हैं। हमने एक नए युग में प्रवेश कर लिया है ।इसके पहले की श्तिति में यह पूर्वानुमान लगाना भी नामुमकिन था कि संघ-सरकार किस हद तक हमें (निजी जेल कंपनी) गले लगाएगी। बरसों तक हम इसकी बस बातें किया करते थे।अब हम उस कल्पना के हकीकत बनने की सरहद पर पहुँच चुके हैं ।"-जॉर्ज ज़ोले अपनी कंपनी के साथी अधिकारियों से कहते हैं ।

लागत की बचत

इस सुधार उद्योग का हमेशा से तर्क रहा है कि जेलों के निजीकरण से अचानक लागत कम हो जाती है । अमेरिकी सामान्य लेखागार कि १९९६ की एक रपट के निष्कर्ष में हाँलाकि कहा गया है कि इस दावे को पुष्ट करने के स्पष्ट साक्ष्य नहीं पाए गए । जेल-कंपनियाँ अन्य कंपनियों की तुलना में निश्चित फ़ाएदे में रहती हैं । श्रम के मामलों के मद में ये कंपनियाँ ढ़ेर सारा पैसा बचा पाती हैं जो अन्य परिस्थितियों में गैर कानूनी माना जाता।अन्तेवासी-बन्दियों को सभी जेलों में काम के बदले अत्यन्त कम मजदूरी दी जाती है ।इस मामले में आप्रवासियों के लिए बनीं जेलें बत्तर होती हैं।स्वराष्ट्र-सुरक्षा विभाग का दिशा निर्देश है कि गैर-नागरिक बन्दियों को रोज एक डॉलर से अधिक नहीं दिया जाएगा ।इस प्रकार जेल-कंपनियों को नगण्य लागत पर दरबान , सफ़ाई कर्मी , मिस्त्री , धोबी , रसोइए और माली मिल जाते हैं ।

आप्रवासी बन्दियों की जेल-शायिकाओं की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ उन्हें भरने का दबाव भी बढ़ने लगता है - आप्रवासियों के वकील इस हाल से बहुत चिन्तित हैं । मानवाधिकार कार्यकर्ता और अधिवक्ता इसाबेल गार्सिया आप्रवासियों को बन्दी बनाने के अभियान की चर्चा करते हुए कहती हैं , " जेल-उद्योग के ये संकुल 'ड्रग्स के खिलाफ़ जंग' के दौरान पहले-पहल परवान चढ़े थे। "ड्रग्स के खिलाफ़ जंग" अत्यन्त सहजता से "आपवासियों के खिलाफ़ जंग" में तब्दील हो गयी है । आप्रवासियों को कैद रखने में काफ़ी कमाई है ।" गार्सिया आगे बताती हैं कि इस उद्योग की अत्यन्त बलवान-धनवान लॉबी की पहुँच और संघीय सरकार से इनके मजबूत रिश्तों की वजह से इस उद्योग में बहार आई हुई है । गार्सिया को इस बात कि चिन्ता है कि लाभ कमाने की उत्प्रेरणा आप्रवासियों में अपराधीकरण की वृत्ति को बढ़ाएगी ।

राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर स्वदेश सुरक्षा विभाग ने निजी उद्योग की अगुवाई में ऐसी व्यवस्थाएं और प्रक्रिया लागू की हैं जिनके द्वारा यह आभास दिया जा रहा है कि इनसे अमेरिका को भविष्य में होने वाले आतंकी हमलों से सुरक्षा मिलेगी । फिर भी कई मामलों में ऐसे आप्रवासी और गैर-नागरिक इस जाल में फँस जाते हैं जिनका आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं होता है ।

शनिवार, फ़रवरी 17, 2007

ये परदेसी जिन्दगी : आप्रवासियों के लिए निजी जेल : दीपा फर्नाण्डीज़ : प्रस्तुति - अफ़लातून

[ कम्पनियों द्वारा संचालित जेलें ? जी , हाँ । इसकी कल्पना भी नहीं की थी। पत्रकार दीपा फर्नाण्डीज़ की ताजा किताब 'टार्गेटेड़' में ऐसी जेलों और उन कम्पनियों और जेल-उद्योग का तफ़सील से विवरण हैं । मैंने उनकी किताब के आधार पर लिखे गए एक लेख को हिन्दी में प्रस्तुत करने की उनसे और 'कॉर्पवॉच' नामक जाल-स्थल से अनुमति प्राप्त की।

कोका-कोला कम्पनी के बनारस के निकट मेंहदीगंज स्थित बॉटलिंग संयंत्र द्वारा भूगर्भ जल के दोहन के विरुद्ध चले आन्दोलन पर मेरी पहली रपट 'कॉर्पवॉच' ने छापी थी । यह जाल-स्थल निगमों के उत्तरदायित्व पर काम करता है।कुछ वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद मैंने यह पाया कि निगमों की कारगुजारियों का बहुत गहराई से अध्ययन इनके द्वारा होता है। मेरे मन में यह प्रश्न इनके अध्ययनों को देखने के बाद उठा कि भारत में 'सूचना का अधिकार' लागू होने के बावजूद इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों की कारगुजारियों के बारे में कितनी सूचनाएं माँगी गईं होंगी ? ]

दक्षिण - पश्चिम अमेरिका में मेक्सिको से सटा एक राज्य है , एरिज़ोना । एरिज़ोना में एक छोटा कस्बा है फ़्लोरेन्स । अमेरिका में निजी जेलों की हुई सहसावृद्धि का केन्द्र यह कस्बा है । नागफनी , लाल चट्टानें और रह - रह कर दिखने वाले पहाड़ों के करीब से गुजरने वाले एक- लेन के राजमार्ग से पहुँचा जाता है , इस रेगिस्तानी 'कारा - कस्बे' में। इस रास्ते से गुजरते वक्त अचानक एक सूचना पट्ट फुदक कर प्रकट होता है : " शासकीय कारागार : हिच हाइकरों को न बैठाएं "।(हिचहाइकर- किसी दिशा में जा रही गाड़ियों से मुफ्त सवारी माँग कर यात्रा करने वालों को कहते हैं ।)

फ़्लोरेन्स में एरिज़ोना राज्य का शासकीय कारागार , निजी सुरक्षा कम्पनियों द्वारा संचालित दो कारागार और स्वदेश सुरक्षा विभाग( होमलैण्ड सिक्यूरिटि डिपार्टमेंट) द्वारा संचालित आप्रवासियों के लिए बना एक कारागार है ।

इस कस्बे में चलने वाले एकमात्र जनहित कानूनी सहायता केन्द्र की संचालिका अधिवक्ता विक्टोरिया लोपेज़ कहती हैं ," यहाँ की अर्थव्यवस्था कारागार-केन्द्रित है और जनसाधारण की सोच और चिन्तन भी कारागार केन्द्रित हैं । एक अलग दुनिया है फ़्लोरेन्स की ।ज्यादातर स्थानीय बासिन्दे पुश्तों से जेल-व्यवस्था से जुड़े रहे हैं ।यहाँ का जीवन जेल-केन्द्रित है । "

अमेरिका सरकार द्वारा आन्तरिक सुरक्षा उपाय लागू किए जाने के बाद जेलों में भरे जा रहे आप्रवासियों की तादाद में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है , नतीजतन निजी जेल-उद्योग की भी सहसावृद्धि हुई है । न्यू यॉर्क पर हुए ११ सितम्बर के हमलों के परिणामस्वरूप अमरीकी जेलों में बन्द कुल आबादी में आप्रवासियों का तबका सबसे तेजी से बढ़ा है । वित्तीय वर्ष २००५ में साढ़े तीन लाख से ज्यादा आप्रवासियों को अदालतों का सामना करना पड़ा । " इनमें अमेरिका आने के बाद किसी भी अपराध मे शामिल न रहने वालों की संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है ।इस वर्ष इस श्रेणी में ५३ फ़ीसदी लोग थे जबकि वर्ष २००१ ऐसे लोगों की तादाद ३७ फ़ीसदी थी। बुश प्रशासन के अधिकारियों द्वारा अपराधियों को निर्वासित कर देने को प्राथमिकता देने की नीति की बारंबार घोषणा के बावजूद ये हालात हैं ।"- डेनवर पोस्ट की रपट ।

खदानों से जेल तक

इस देहाती-से कस्बे की स्थानीय आबादी में काफी लोगों के परिवार का कोई न कोई सदस्य चाँदी की खदानों से कभी न कभी जुड़ा रहा । धीरे-धीरे चाँदी की खदानों का काम मन्दा पड़ता गया । बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में कस्बे में क्षेत्रीय कारागार बना। इस कस्बे में फिर जान फूँकने का काम हुआ जब देश की सबसे बड़ी जेल-कंपनियों में एक टेनेसी स्थित करेक्शन कॉर्पोरेशन ऑफ़ अमेरिका (CCA) ने फ़्लोरेन्स में दो कारागार स्थापित किए,अमेरिकी आप्रवासी एवं नागरिकता सेवा(INS) ने शुरुआत में गिरफ्तार आप्रवासियों के लिए किराये के स्थान देने चालू किए फिर दूसरे विश्वयुद्ध के युद्धबन्दियों के लिए बने कैम्प को एक कारागार बना दिया ।आप्रवासी कैदियों की बाढ़ ने कस्बे में रोजगार के नए अवसर सृजित किए ।वहाँ की स्थानीय अर्थव्यवस्था इसी के बूते चल निकली।कस्बे से सटे बाहरी इलाकों में नए-नए आवासीय संकुल बनने लगे और इनके पीछे-पीछे फुटकर व्यवसाय की बड़ी कम्पनी वॉल मार्ट का आगमन भी हुआ ।

सन २००० में निजी जेल उद्योग पर एक अरब डॉलर का कर्ज था और उसके द्वारा साख-समझौतों का उल्लंघन हो रहा था । करेक्शन कॉर्पोरेशन के शेयर ९३ फ़ीसदी तक गिर गए। बिज़नेस वीक पत्रिका ने लिखा,'सुधार उद्योग के बहारों के दिन लद चुके हैं ।' उस दौर की गिरावट के कारण बताते हुए अमेरिकन प्रॉस्पेक्ट नामक राष्ट्रीय पत्रिका ने लिखा :

" निजी कारागार उद्योग विपत्ति में है। लगभग एक दशक तक उसके व्यवसाय में तेजी थी तथा उसके शेयरों की कीमतें लगातार चढ़ रहीं थीं क्योंकि देश भर की विधायिकाओं का आकलन था कि इससे एक ओर अपराध पर लगाम कसेगी तथा निजी कंपनियों से विधाइकाओं के समझौते वित्तीय रूप से सन्तुलित होंगे। कानूनों में दण्ड देने के ज्यादा कठोर प्रावधानों की वजह से बढ़ने वाली बन्दियों की आमद से निबटने में भी ये समझौते मददगार होंगे । लेकिन हकीकत कुछ और थी : निजी जेलों की खामियों और उनमें हो रहीं दुर्व्यवहार की घटनाओं से सम्बन्धित प्रेस-रिपोर्टों के अम्बार लग गए । इन दुर्व्यवहारों के कई मामले अदालतों में खींचे गए और लाखों डॉलर के मुआवजे भरने पड़े । गत एक वर्ष में किसी भी राज्य ने निजी जेलों के के लिए अनुबन्ध नहीं किए हैं ।कई विद्यमान अनुबन्ध निरस्त कर दिए गए। इन कंपनियों के शेयर औंधे मुँह गिरे हैं ।"

इन्हीं परिस्थितियों में न्यू यॉर्क पर ११ सितम्बर २००१ के हमले हुए । सरकार के निशाने पर गैर-नागरिक आप्रवासी आ गए ।आप्रवासी-समुदाय में थोक में गिरफ़्तारियाँ होने लगीं , बिना दस्तावेजों के सरहद पार करने वालों पर चलने वाले मुकदमे बढ़ गए तथा आपराधिक और आतंकी आरोपों को तय करने तक लोगों को कैद में रखने के आप्रवासन कानून के प्रावधान का उपयोग बढ़ गया।होमलैण्ड सिक्यूरिटी विभाग (स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग) का गठन हुआ ।

अमेरिका सरकार का दावा है कि जिन लोगों की कोई कानूनी हैसियत नहीं है उनके देश में घुल-मिल जाने को रोकने का सबसे अच्छा उपाय उन्हें कैद कर देना है । स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग के महानिरीक्षक कार्यालय की सन २००४ की एक रपट का निष्कर्ष था कि इस बात के पूर्ण प्रमाण हैं कि - " किसी परदेशी के संभाव्य देश-निकाला के पहले उसे निरुद्ध रखना जरूरी है । इसलिए निरुद्ध लोगों को रखने का प्रभावी इन्तेजाम आप्रवास-प्रवर्तन के प्रयासों में यथेष्ट सहायक होता है । "

बुश प्रशासन द्वारा गैर-नागरिकों को कैद में डालने की रफ़्तार और विस्तार ऐसे हैं कि आप्रवासियों को कैद में रखने के के लिए जगह की जरूरत असाधारण ढंग से बढ़ गई है ।

स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग द्वारा संचालित 'विशेष संसाधन केन्द्र' ऐसी विशाल दुकान की तरह हैं जहाँ एक ही ठिकाने पर आप्रवासियों को कैद रखा जा सकता है, उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है , आप्रवासन-न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है और देश-निकाले का आदेश प्राप्त किया जा सकता है। इस स्वत:पूर्ण संकुल से बाहर जाने की कोई जरूरत नहीं है । हाँलाकि स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग इन केन्द्रों को 'जेल' कहना नहीं चाहता लेकिन फ़्लोरेन्स स्थित उनके 'विशेष संसाधन केन्द्र' में घेरेदार कँटीले तार,उसके बाहर सिकडियों का बाड़ा और भीतर तालाबन्द कोठरियों में ठूँसे गए आप्रवासी रहते हैं ।उन्हें जोशीले अभियोजन का सामना करना पड़ता है और कई मामलों में बिना मुकदमा , बिना सजा हुए हफ्तों और महीनों तक इन कैदखानों में घुट कर रहना पड़ता है ।

फ़्लोरेन्स का बन्दी संकुल ३०० आप्रवासियों को कैद रखने की व्यवस्था के नेटवर्क का हिस्सा है। गिरफ्तारी से देश- निकाले के बीच हर आप्रवासी औसतन ४२.५ दिन कैद रहता है ।हर कैदी के पर प्रतिदिन के खर्च के लिए ८५ डॉलर मुकर्रर होते हैं यानी सालाना ३,६१२.५० डॉलर । स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग ने सन २००३ में २३१,५०० लोगों को निरुद्ध किया जिसका बजट १.३ अरब डॉलर था । सन २००१ से विभाग द्वारा कैद करने की तादाद और उसका बजट उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है ।सन २००३ में इस विभाग के बजट में ५ करोड़ डॉलर आप्रवासियों के लिए नई जेलें बनाने के मद में आवण्टित थे ।

आप्रवासी जेल : कुछ आँकड़े

" संघीय सरकार(केन्द्र सरकार) द्वारा पूरे देश में २६,५०० परदेशी उचित दस्तावेजों के अभाव में पकड़े गए हैं । इस साल के अन्त तक इनकी संख्या ३२,००० तक पहुँच जाएगी ।"

" साढ़े छ: करोड़ डॉलर की लागत से टेक्सस में तम्बुओं का एक शहर बनाया गया है । इन बिना खिड़कियों वाले तम्बुओं में २००० आप्रवासियों को दिन में २३ घण्टे बन्द रखा जाता है।अक्सर भोजन ,कपड़े , चिकित्सा और फोन की सुविधा का अभाव रहता है । "

" करीब १६ लाख आप्रवासी अदालती प्रक्रिया के किसी न किसी चरण में निरुद्ध हैं । इस प्रकार 'आप्रवासन और कस्टम प्रवर्तन (इमिग्रेशन एण्ड कस्टम्स एनफ़ोर्समेंट) के तहत हर- रात क्लैरियन होटल श्रृंखला के कुल अतिथियों से अधिक अन्तेवासी-कैदी होते हैं ।इस प्राधिकरण द्वारा ग्रेहाउण्ड बस सेवा के लगभग बराबर तादाद में वाहन संचालित किए जाते हैं तथा प्रतिदिन यह प्राधिकरण कई छोटी विमान सेवाओं से अधिक लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर वायुमार्ग से ले जाता है।"

" प्राधिकरण द्वारा निरुद्ध लोगों की ८० फ़ीसदी शायिकाएं , ३०० स्थानीय एवं राज्य कारावासों को भाड़े पर दी जाती हैं । इनमें ज्यादातर अमेरिका के दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में स्थित हैं ।

" सीमा सुरक्षा बल ने पिछले साल ११ लाख गिरफ़्तारियाँ की थीं। इनमें से ज्यादातर को तत्काल वापस भेज दिया गया था । करीब ५ लाख लोग वैध तरीके से अमेरिका में आने के बाद,वीसा समाप्ति के बाद भी रह रहे हैं ।

" इनके अलावा ६३०,०० लोग देश-निकाले के आदेश को नजरंदाज करके फ़रार हैं ।करीब ३००,००० आप्रवासी छोटे-मोटे अपराधों में स्थानीय तथा राज्य कारागारों में बन्द हैं। इन्हें देश-बाहर किया जाना है किन्तु इनमें से कई सजा पूरी करने के बाद किसी न्यायिक कमजोरी के कारण टिके रह जाएंगे ।

स्रोत : वाशिंगटन पोस्ट , २ फरवरी , २००७.

(क्रमश:)

गुरुवार, फ़रवरी 15, 2007

'दो तिहाई आबादी को होगी पानी की किल्लत'


साभार : बीबीसी-हिन्दी

संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी ने चेतावनी दी है कि अगले बीस वर्षों में दुनिया की दो तिहाई आबादी को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ेगा.
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन का कहना है कि दुनिया की आबादी जिस गति से बढ़ रही है, उससे दोगुनी दर से पानी की खपत बढ़ रही है.
यह चेतावनी संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन में जलस्रोत विकास और प्रबंधन विभाग की ज़िम्मेदारी संभाल रहे विशेषज्ञों की रिपोर्ट के आधार पर जारी की गई है.
विभाग के प्रमुख पास्कल स्टेदुटो ने जलस्रोतों के संरक्षण के लिए स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने की अपील की है.
अभी दुनिया में एक अरब से अधिक आबादी को रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त स्वच्छ पानी नहीं मिल पा रहा है.
साथ ही ढ़ाई अरब से अधिक लोगों को पर्याप्त साफ सफाई की सुविधा नहीं मिल रही है.
तालाबों, नदियों और भूमिगत जलस्रोतों से मिल रहे स्वच्छ पानी का दो तिहाई से अधिक हिस्सा खेती में ही इस्तेमाल हो रहा है.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि दुनिया के कई हिस्सों में किसान उत्पादन बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे ज़्यादा से ज़्यादा पानी हथियाने की मुहिम भी शुरू हो गई है.
किसानों को सलाह दी गई है कि वे बारिश के पानी का इकठ्ठा रखने पर ज़ोर दें और सिंचाई के दौरान पानी की बर्बादी रोकें.

मंगलवार, फ़रवरी 13, 2007

आयात - निर्यात और मीडिया : किशन पटनायक

' हम निर्यात करेंगे तो हमारा विकास होगा ।' मीडिया के लिए यह एक मंत्र है । विश्व बैंक से यह मंत्र आया है । हमारे विद्वानों में यह साहस नहीं है कि इस गलत धारणा को देश के दिमाग से हटाने की कोशिश करें । भारतीय अर्थनीति में निर्यात की भूमिका के बारे में एक सही दृष्टि होनी चाहिए ।

कुछ ही देश होंगे जिनका प्रारंभिक विकास निर्यात पर निर्भर है । साधारण नियम यह है कि जिस देश में अगर कृषि और उद्योग का विकास हो रहा है तो विकास का तकाज़ा है कि आयात निर्यात में भी वृद्धि की जाए ।यूरोप अमरीका में भी यह हुआ । उद्योग का तीव्र विकास होने लगा तो निर्यात भी बढ़ा ।

विश्व बैंक जानबूझकर विकासशील देशों को गलत सलाह देता है । निर्यात को कृत्रिम ढंग से बढ़ाने के लिए विकासशील देश अपनी वस्तुओं का दाम कम कर देते हैं । इससे पश्चिम के धनी देशों को बहुत फायदा है ।एक हिसाब के मुताबिक १९८० के बाद गरीब देशों से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं का दाम ४५ प्रतिशत घटा है । यानी पश्चिम के उपभोक्ताओं को हमारी चीजें आधे दाम पर मिल जाती हैं । इसी कारण पश्चिम के नागरिक मौजूदा अर्थव्यवस्था से खुश हैं ।

विकासशील देशों को यह देखना होगा कि उनका आयात निर्यात से अधिक न हो । आयात अगर निर्यात से ज्यादा होगा तो व्यापारिक घाटा होगा । पिछले दस साल के आयात-निर्यात को देखेंगे तो हम पाते हैं कि भारत हमेशा घाटे में व्यापार कर रहा है ।

विकासशील देशों के आयात को बढ़ाने के लिए विश्वव्यापार संगठन का अपना नियम है । आयात शुल्कों को घटाने के लिए मुद्राकोष और विश्वव्यापार संगठन दोनों दबाव डालते हैं । जैसे-जैसे उपभोक्तावादी संस्कृति फैलती है और आयात शुल्क शून्य की ओर बढ़ता है आयात तीव्र गति से बढ़ता है ।उसके साथ निर्यात का कोई मेल नहीं रह जाता है ।निर्यात बढ़ाने की आतुरता में हमारी सरकार निर्यातकारी व्यवसाइयों की गलतियों को अनदेखी कर देती है । इसका फायदा उठाकर आयात-निर्यात के दौरान ये व्यवसायी देश का धन विदेशों में ले जाकर वहाँ के बैंकों में रखते हैं। यानी विदेशों में भारत का काला धन संचित होता है ।राष्ट्रपति के.आर. नारायण जब उपराष्ट्रपति थे , तब उन्होंने एक बार कहा था कि केवल यूरोप के बैंकों में भारत का एक लाख करोड़ रुपया अवैध रूप से रखा हुआ है ।

रुपया हमारी आर्थिक स्थिरता का प्रतीक है । लेकिन रुपया हर साल गिरते जा रहा है। कभी स्थिर नहीं रहा ,न ऊपर चढ़ा। कभी मुद्राकोष के आदेश से वह गिरता है तो कभी बाजार के दबाव में गिरता है । इस पर जब चिंता व्यक्त होती है तो मीडिया प्रचार करती है कि इससे निर्यात को फायदा है । निर्यात सर्वोपरि है ।उसके ऊपर विकास निर्भर है । अगर रुपया गिरने से निर्यात बढ़ेगा तो गिरने दो । इस प्रकार की मानसिकता सचमुच राष्ट्र के लिए लज्जा की बात है ।

मीडिया अक्सर इस बात को छुपाती है कि निर्यात के लिए सरकार को कितना घाटा सहना पड़ता है ?सरकार को कितनी सबसिडी निर्यात को देनी पड़ती है ।सबसिडी को बदनाम किया जाता है,निर्यात का उल्लेख तक नहीं होता है ।

मीडिया का इसमें अपना स्वार्थ है । मीडिया के बहुत सारे मालिक हैं जिनका अपना आयात-निर्यात का धंधा रहता है । निर्यात को प्रोत्साहन मिलने पर या आयात को नि:शुल्क कर देने पर उनको बहुत ज्यादा फायदा होता है ।संपन्न लोगों का वर्ग स्वार्थ इसमें है कि निर्यात बढ़ रहा है कह कर आयात बढ़ाने की छूट मिल जाती है और संपन्न वर्ग की चाह के मुताबिक विदेशों से उपभोक्तावादी वस्तुएं देश में आ जाती हैं । मीडिया का जुड़ाव इसी वर्ग के साथ है । हम सूचना के लिए मीडिया का सहारा लेते हैं । लेकिन मीडिया निष्पक्ष सूचना कम देती है । अर्थनीति और संस्कृति के बारे में गलत धारणाओं को फैलाना इसका मुख्य काम होता जा रहा है ।

निर्यात के बारे में हम कह सकते हैं कि एक अच्छी आधुनिक अर्थव्यवस्था का निर्यात एक अनिवार्य अंग है । लेकिन निर्यात का मूल्यांकन आयात के साथ जोड़कर होना चाहिए । आयात-निर्यात में देश की कृषि और उद्योग का विकास प्रतिफलित होना चाहिए । केवल निर्यात में वृद्धि आर्थिक सुधार का सूचक नहीं है ।

जे.पी. और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

[ सवालों के लिखित उत्तर जयप्रकाश नारायण ने 'सामयिक वार्ता' के लिए सितम्बर १९७७ के पहले सप्ताह में दिये ।निम्नलिखित सवाल-जवाब का स्रोत - सामयिक वार्ता , १६ सितम्बर,१९७७ है ।]

प्रश्न : आपके आन्दोलन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय मजदूर संघ ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के साथ भाग लिया ।जनता पार्टी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक अंग अर्थात जनसंघ तो शामिल हो गया है । लेकिन वह खुद तथा अ.भा. विद्यार्थी परिषद और भारतीय मजदूर संघ अपनी अलग हैसियत बनाये हुए हैं । ये जनता पार्टी के युवा , छात्र और मजदूर आदि संगठनों में मिलने से इनकार कर रहे हैं । क्या आपको यह नहीं लगता है कि इससे पार्टी की एकता की भावना कमजोर होती है ?क्या आपके आन्दोलन में शामिल होनेवाले लोगों को , जिन्होंने इमरजेंसी के वक्त बहुत कष्ट सहे , एकता को सबसे ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए ?

जे.पी : इससे निश्चय ही (एकता) कमजोर होगी । मैं आशा करता हूँ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ , विद्यार्थी परिषद और भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठन , जनता पार्टी के जो विभिन्न संगठन बन रहे हैं , उनमें शामिल होंगे । अगर वे शामिल नहीं हुए तो आगे फूट और झगड़े की बहुत ज्यादा आशंका रहेगी ।

प्रश्न : क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में देखते हैं ? यह सवाल हम इसलिए कर रहे हैं कि आपने उसके बारे में एक समय इससे भिन्न मत प्रकट किया था ।

जे.पी. : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक संगठन मानना मुश्किल है।

प्रश्न : आपने बम्बई में २१-२२ मार्च १९७६ को एक अकेली संयुक्त पार्टी बनाने के उद्देश्य से संगठन कांग्रेस , जनसंघ , भारतीय लोक दल , सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधियों को तथा कुछ व्यक्तियों की बैठक बुलाई थी । इस बैठक में आपने जनसंघ के प्रतिनिधि को काफी कड़ाई से पूछा था कि वे जेल में क्या अलग शाखाएँ चलाते हैं ? क्या आपकी अभी भी यही राय है ?

जे.पी. : मेरी अभी भी यही राय है ।

प्रश्न : 'बिहारवासियों के नाम चिट्ठी में आपने लिखा है " मैंने(जयप्रकाशजी ने) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आन्दोलन की सर्वधर्म समभावनावाली धारा में लाकर साम्प्रदायिकता से मुक्त करने की कोशिश की है ।" आपने यह दावा भी किया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग कुछ हद तक बदले भी हैं ।क्या आप यह मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू-राष्ट्र के विचार को त्याग दिया है ? आपकी और गांधीजी की भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिन्दू-राष्ट्र की अवधारणा से बुनियादी रूप से भिन्न है ।अगर यह बात ठीक है तो यह भिन्नता कैसी है ? अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके अन्य संगठन हिन्दू-राष्ट्र के अपने विचार पर अटल रहते हैं तो क्या इससे भारतीय राष्ट्र और देश सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए एक हो पाएगा ?

जे.पी. : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं और कार्यकर्ताओं से अपने सम्पर्क के दौरान मुझे निश्चय ही उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन नजर आया । उनमें अब अन्य समुदायों के प्रति शत्रुता कि भावना नहीं है । लेकिन अपने मन में वे अभी भी हिन्दू-राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास करते हैं ।वे यह कल्पना करते हैं कि मुसलमान और ईसाई(जैसे अन्य समुदाय) तो पहले से ही संगठित हैं जबकि हिन्दू बिखरे हुए और असंगठित और इसलिए वे हिन्दुओं को संगठित करना अपना मुख्य काम मानते हैं ।रा.स्व. संघ के नेताओं के इस दृष्टिकोण में परिवर्तन होना ही चाहिए । मैं यही आशा करता हूँ कि वे हिन्दू-राष्ट्र के विचार को त्याग देंगे और उसकी जगह भारतीय राष्ट्र के विचार को अपनाएँगे । भारतीय राष्ट्र का विचार सर्वधर्म समभाववाली अवधारणा है और यह भारत में रहनेवाले सभी समुदायों को अंगीकार करता है।अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को भंग नहीं करता और जनता पार्टी द्वारा गठित युवा या सांस्कृतिक संगठनों में शामिल नहीं होता तो उसे कम-से-कम सभी समुदायों के लोगों ,मुसलमानों और ईसाइयों को अपने में शामिल करना चाहिए। उसे अपने संचालन और काम करने के तरीकों का लोकतंत्रीकरण करना चाहिए और सभी जातियों और समुदायों के लोगों , हरिजन ,मुसलमान और ईसाई को अपने सर्वोच्च पदों पर नियुक्त करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए ।

Technorati tags: ,

सोमवार, फ़रवरी 12, 2007

चीन और विदेशी पूंजी : किशन पटनायक

हम कह चुके हैं कि चीन में भारत की तुलना में बहुत ज्यादा विदेशी पूंजी का प्रवेश हो रहा है । चीन के एक निर्धारित इलाके में सघन रूप से पूंजीवादी विकास किया जा रहा है । वहाँ आधुनिक उद्योगों का विकास तीव्रता से हो रहा है । उसको देख कर चीन के औद्योगिक भविष्य के बारे में बहुत बड़ी उम्मीदें लगायी जा रही हैं ।

चीन के भविष्य के बारे में सन्देह भी पैदा होता है ।संदेह की चर्चा करने के पहले यह समझना होगा कि चीन में पूंजीवादी विकास की सफलता के कारण क्या हैं ?

  1. चीन जैसे विशाल देश का यह औद्योगिक इलाका एक छोटा अंश है । भारत के अनुभव से हम जानते हैं कि एक बड़े देश के छोटे इलाके को आधुनिक उद्योग के द्वारा संपन्न किया जा सकता है। एक बड़े इलाके को पिछड़ा रखकर छोटे हिस्से को समृद्ध करने के सिद्धान्त को 'आंतरिक उपनिवेश' का सिद्धान्त कहा जाता है । पिछड़ा अंश उपनिवेश जैसा ही होता है । इस बड़े इलाके में बेरोजगारी बढ़ती है और उद्योगहीनता भी फैलती है ।
  2. विदेशी पूंजी पर चीन सरकार का नियंत्रण अभी भी है । पूंजी निवेश किस क्षेत्र में होगा , किन वस्तुओं के लिए होगा इनका निर्धारण चीन की साम्यवादी सरकार के नियंत्रण से होता है। यानि चीन के अनुशासन के तहत विदेशी पूंजी काम करती है।चीन विश्वव्यापार संगठन का सदस्य नहीं हुआ है ।इसलिए भारत में जिस प्रकार की खुली छूट विदेशी पूंजी को है , वैसी चीन में नहीं है।

फिर भी कुछ नकारात्मक परिणाम दिखायी देने लगे हैं और चीन के नेतृत्व को चिंतित होना पड़ रहा है । चीन के देहातों में बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है । नयी शिक्षित युवा पीढ़ी में उपभोक्तावादी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं । चीन में राष्ट्रवादी भावना अटूट है । विदेशी पूंजी से खतरा दिखाई देगा तो राष्ट्रवादी भावना विदेशी पूंजी के खिलाफ भी हो सकती है । इसलिए पूंजीवादी शक्तियाँ चीन को बहुत सारी रियायतें दे रही हैं । जब वे देखेंगी कि चीन में पूंजीवाद जड़ जमा चुका है और चीन का मध्यम वर्ग उपभोक्तावाद को छोड़ नहीं पाएगा तब वे चीन की प्रगति को रोकेंगे ; चीन में उनका साम्राज्यवादी शोषण तेज हो जाएगा । यह संभावना इसलिए दिखती है कि पूर्व एशिया के कई देशों के साथ हाल में ऐसा हुआ है ।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद न सिर्फ सोवियत रूस मजबूत हुआ , बल्कि चीन में भी साम्यवाद की स्थापना हो गयी और समूचे पूर्व एशिया में साम्यवाद के फैलने के डर से पश्चिम के पूंजीवादी देश त्रस्त हो गये । इसलिए जहाँ भी पूंजीवाद बच पाया , वहाँ पूंजीवाद को लोकप्रिय बनाने के लिए वहाँ के पूंजीवाद को नाना प्रकार की रियायतें वे देने लगे । उन देशों के जनसाधारण के सामान्य जीवन को बेहतर बनाने के लिए सलाह और आर्थिक सहयोग देने लगे । युद्ध में जापान की शत्रुता को भूलकर अमेरिका ने उसको सहयोग दिया ।इसी कारण जापान अभूतपूर्व ढंग से विकसित हुआ । दक्षिण कोरिया , हांगकांग , सिंगापुर , ताइवान , मलेशिया ,थाइलैंड आदि का किस्सा भी इसी तरह का था । १९९० में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप से साम्यवाद का पराभव हो गया । चीन में भी पूंजीवादी नीतियाँ प्रचलित होने लगीं । तब जाकर साम्यवाद का भय पश्चिम के दिमाग से हटा ।उसके बाद पूर्वी एशिया के देशों को जो सहयोग मिलता था उसका अंत हुआ ।पश्चिम के कुछ पूंजीवादी केन्द्रों से साजिश की गयी थी कि एशिया के देशों के आर्थिक विकास को रोका जाए और उनकी अर्थव्यवस्था में यूरोप अमेरिका की बड़ी कंपनियों का आधिपत्य हो। इसी साजिश के तहत इन देशों में वित्तीय संकट पैदा किया गया। संकट से उबरने के लिए इन देशों को मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा । तब मुद्राकोष उन पर अपनी शर्तें लगा रहा है । इन शर्तों का पालन होने पर जापान छोड़कर बाकी एशियाई देशों में यूरोप अमेरिका की कंपनियों का वर्चस्व बढ़ जाएगा ।

क्या चीन के साथ भी वैसी साजिश होगी ? इसका उत्तर आसान नहीं है ।चीन के लिए सन्तोष का भी कोई कारण नहीं है ।(जारी)

रविवार, फ़रवरी 11, 2007

बैंक बीमा और पेटेंट : किशन पटनायक

राष्ट्र की सारी बचत राशि बैंकों और बीमा के पास जाती है । वहाँ हमारी राष्ट्रीय पूंजी संचित है । उस पर भी विदेशी कंपनियों को वर्चस्व चाहिए । इसलिए भाजपा सरकार कांग्रेस का समर्थन पाकर इससे संबंधित कानूनों को बदल रही है । पेटेंट कानून भी बदल रहा है । दुनिया से सीखकर नयी तकनीकों को अपनाने का रास्ता इससे बन्द हो जायेगा । प्रत्येक उन्नत देश ने अतीत में दूसरे देशों और दूसरी सभ्यताओं से ज्ञान-विज्ञान का सहारा लिया है । आधुनिक टेक्नोलाजी के बारे में अमरीका ने यूरोप से सीखा , जापान ने अमरीका से सीखा । अब विकासशील देशों की बारी आई तब नियम बन गया है कि यह चोरी है।तकनीकी का अनुसरण करना भी अपराध है । सीखना और प्रयोग करना भी अपराध है।विदेशी उद्योगों को हम राष्ट्रीय सम्मान देने के लिए बाध्य होंगे , लेकिन उन उद्योगों से तकनीक की शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते हैं । उनकी कंपनियों के लिए हम दरवाजा खोल देंगे लेकिन हमारे प्रशिक्षित मजदूरों के लिए उनका दरवाजा बंद रहेगा । अगर कंपनी यहाँ आती है तो मजदूर वहाँ भी जा सकते हैं - यह राय सारे विकासशील देशों की है ।लेकिन यह मानी नहीं जाती है क्योंकि विश्वव्यापार संगठन के नियम मतदान के द्वारा नहीं बने हैं ।बातचीत के द्वारा , धौंस जमाकर निर्णय कराए जाते हैं । विश्वबैंक , अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वव्यापार संगठन ये तीनों धनी पूँजीवादी देशों के हथकंडे हैं । हम उसमें सदस्य होने पर भी विदेशी हैं। जैसे कि हम अंग्रेजी साम्राज्य में थे लेकिन अंग्रेज हमारे लिए विदेशी थे ।

विदेशी पूंजी भारत और चीन

कोई पूछ सकता है - ये सब तो नकारात्मक बातें हैं , कुछ सकारात्मक पहलू भी तो होगा ? हमारे देश में पूंजी की कमी है । अब बड़ी मात्रा में विदेशी पूंजी आ रही है । अगर हम पूंजी प्राप्त कर रहे हैं तो क्या उससे हमारा भविष्य बेहतर नहीं होगा ?

अगर अर्थनीति की बातों को विद्वान लोग लोक भाषा में सहज ढंग से समझा कर लिखते तो इस तरह के भ्रम नहीं होते । तब तो साधारण आदमी अपनी बुद्धि का भी इस्तेमाल कर सकता है ।इस वक्त चाहिए कि जो लोग अर्थशास्त्री हैं और देशभक्त भी हैं वे भारतीय भाषा में औसत शिक्षित लोगों को समझायें की देश की अर्थनीति का क्या हो रहा है । इससे विदेशी पूंजी के बारे में पढ़े लिखे लोगों की मोहग्रस्तता टूटती ।(इस विषय पर सरल भाषा में इन लेखों को पढ़ा जा सकता है ।-अफ़लातून)

तर्क के लिए मान लें कि विदेशी पूंजी बड़ी मात्रा में आ रही है । तो पूछना चाहिए क्या फायदा हुआ है ? १९९१ से हम कह रहे हैं कि आ रही है , विदेशी पूंजी उत्साहित होकर आ रही है । तब से लोगों का ध्यान कृषि से हटकर उद्योग के ऊपर बंध गया है - उद्योग की बहुत ज्यादा तरक्की होगी । हमारा औद्योगिक क्षेत्र गतिशील हो जाएगा ; बहुत रोजगार भी देगा ।

नयी आर्थिक नीति के समर्थक लोगों को यह समझ में आना चाहिए कि जितनी मात्रा में विदेशी पूंजी भारत में आ रही है और जिस काम के लिए आ रही है , उससे भारत के औद्योगीकरण में कोई तेजी नहीं आएगी । जो भी विदेशी पूंजी आ रही है उसका निवेश मोटरगाड़ी ,बिस्कुट,टेलिविजन,वाशिंग मशीन, कोका कोला ,कंप्यूटर,सौन्दर्य प्रसाधन आदि उपभोक्तावादी उद्योगों में हो रहा है ।इन वस्तुओं का खरीददार देश का संपन्न वर्ग है । संख्या में यह बहुत छोटा है। आश्चर्य की बात यह है कि उन वस्तुओं के खरीददारों की संख्या बढ़ाने के लिए पांचवें वेतन आयोग के बहाने देश के सभी सरकारी अफसरो-कर्मचारियों का वेतन भत्ता बढ़ाया गया है । वेतन लेनेवाले और उनके ट्रेड यूनियन भी शायद नहीं जानते हैं कि उनके वेतनों में वृद्धि का मुख्य कारण यह है । वे यह जानेंगे तो उन्हें कुछ शर्म भी लगेगी ।

इसके बावजूद उद्योग में प्रगति नहीं होगी उलटा आर्थिक प्रगति के बगैर वेतनवृद्धि होने से विषमतायें बढ़ेंगी और अर्थव्यवस्था में नये असंतुलन पैदा होंगे । उद्योगों में गतिशीलता तब आयेगी जब आबादी का बड़ा हिस्सा उद्योग द्वारा निर्मित वस्तुओं का खरीददार होगा । इसका मतलब है कि कृषि की उन्नति से जब छोटे किसानों और मजदूरों की क्रय शक्ति बढ़ेगी तब उनकी आवश्यकता पूरी करने वाले उद्योगों को बल मिलेगा । आधुनिक उपभोक्तावादी बाजार पैदा करके भारत के उद्योगों में लम्बे समय तक तेजी नहीं आएगी ।रोजगार बढ़ने से क्रय शक्ति बढ़ती है ।भारत में जितना देशी या विदेशी पूंजी निवेश १९९१ के बाद हो रहा है उससे रोजगार बढ़ने के बजाये घट रहा है । अत्याधुनिक टेक्नोलाजी के कारण ऐसा हो रहा है । बेरोजगारी अधिक व्यापक होगी तो उद्योग किस आधार पर बढ़ेगा ? भारत के कई प्रसिद्ध औद्योगिक घरानों की ओर से (उदाहरण के लिए टाटा कंपनी) यह ऐलान हो रहा है कि अगले कुछ सालों में उनके मजदूरों की संख्या कम हो जाएगी ।इनसे पूछा जाना चाहिए कि मजदूरों की संख्या अगर घटती जाएगी तो किन किन समूहों की क्रय शक्ति के बल पर भारत का औद्योगीकरण होगा ?

विदेशी पूंजी के बारे में और एक तथ्य जानना जरूरी है । सारे विश्व में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश के जो परिणाम हैं उसका नब्बे प्रतिशत दुनिया के विकसित औद्योगिक इलाकों में चला जाता है। यानि उत्तर अमरीका ,यूरोप , जापान में । चीन का जो नया औद्योगीक इलाका चाएन के तटीय प्रांत में विकसित हो रहा है वह भी इसमें शामिल है । बाकी दस प्रतिशत में से अपना हिस्सा मांगने के लिए सारे विकासशील देश होड़ लगाये हुए हैं । इससे यह समझ में आना चाहिए कि हमको एक नगण्य हिस्सा ही मिल सकता है । हमारी अपनी पूंजी से विदेशी पूंजी का अनुपात बहुत छोटा होगा । लेकिन विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए हम अपनी औद्योगिक नीतियों को विदेशियों के हित में बदल रहे हैं । नतीजा यह हो रहा है कि हमारी अपनी पूंजी का सही उपयोग नहीं हो पा रहा है ।वह सड़ रही है । क्योंकि विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए हम दिन-रात सार्वजनिक क्षेत्र की निन्दा कर रहे हैं । उसकी इतनी बदनामी हो चुकी है कि लोगों के मन से भी उस पर भरोसा उठ रहा है ।उसको बेचने पर भी उचित दाम नहीं मिलेगा ।होना यह चाहिए था कि सार्वजनिक उद्योगों की त्रुटियों को समझकर उनकी कार्यकुशलता बढ़ाई जाती । स्वदेशी उद्योग का नारा देने वालों को यही करना चाहिए था ।

शनिवार, फ़रवरी 10, 2007

आर्थिक संप्रभुता क्या है ? : किशन पटनायक

इतिहास की उथल - पुथल से , युद्ध - संधि , विकास और विद्रोह से राष्ट्रों का निर्माण तथा नवनिर्माण होता है । एक बहुत बड़े उथल - पुथल से भारतीय राष्ट्र का नवगठन १५ अगस्त १९४७ को हुआ । बीसवीं सदी के इस काल खण्ड में आज के अधिकांश विकासशील देशों का नये सिरे से अभ्युदय धरती पर हुआ । ये सारे राष्ट्र आज़ाद हैं । आज़ाद राष्ट्र की संप्रभुता होती है । यानी प्रत्येक राष्ट्र अपनी बुद्धि विवेक से अपनी जनता की सुरक्षा और कल्याण संबंधी नीतियों का निर्णय करता है ।देश के बाहर की कोई शक्ति हम पर यह लाद नहीं सकती है कि हमारी नीतियाँ और कानून क्या होंगे । इसीको राष्ट्र की संप्रभुता कहा जाता है ।

विश्व व्यापार संगठन एक विदेशी शक्ति है । कोई पूछ सकता है कि आपका देश उसका सदस्य है तो वह विदेशी कैसे है ?यह सही है कि हमारी सरकार ने गलत बुद्धि से परिस्थितियों के दबाव में आकर भारत को इसका सदस्य बना दिया है । राष्ट्रों के बीच अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से यह संगठन बना है । लेकिन इसका अधिकार क्षेत्र बहुत ज्यादा है ।संयुक्त राष्ट्र संघ का अधिकार इतना नहीं है जितना इस संगठन का है । यह संगठन हमें निर्देशित करता है कि अमुक कानून बनाओ । उसका निर्देश एक कानून है और हमे वह दंडित कर सकता है । एक व्यापार-सहयोग संस्था को धनी शक्तिशाली देशों ने एक विश्व सरकार का दर्जा दे दिया है । उनकी आपसी सहमति जिस बात पर हो जाती है वह संगठन का कानून बन जाता है ।उसके निर्णयों को विकासशील देश बिलकुल प्रभावित नहीं कर सकते हैं । निम्नलिखित कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाएगा कि कैसे हमारे ऊपर निर्णय लाद दिये जाते हैं ।

स्वाधीनता के प्रथम दिवस से हमारा लक्ष्य रहा है कि भारत खाद्य के मामले में आत्म-निर्भर बनेगा। शुरु के दिनों मे हमारा खाद्य उत्पादन बहुत कम था और खाद्यान के आयात के लिए अमेरिका के ऊपर निर्भर रहना पड़ता था । हमको अपमान झेलना पड़ता था । बाद में स्थिति बहुत सुधरी और खाद्यान के आयात की जरूरत नहीं रह गयी । यह विश्वव्यापार संगठन अब कहता है कि हम खाद्यान्न आयात करने के लिए बाध्य हैं ।बुनियादी जरूरत की चीजों के लिए किसी भी देश को अन्य देशों पर निर्भर नहीं होना चाहिए । जिसके पास कृषि भूमि है उस देश को अपनी आबादी के प्रति-दिन के आवश्यक भोजन के लिए अन्य देशों पर निर्भर नहीं होना चाहिए । गरीब देश खाद्यान के लिए बाहरी शक्तियों पर निर्भर रहें ताकि उनको दबाया जा सके , अंतर्राष्ट्रीय मामलों में झुकाया जा सके । कोई भी कारण बता कर वे अपना सहयोग बन्द कर सकते हैं । उसका ताजा उदाहरण सामने है। परमाणु विस्फोट का बहाना बना कर अमरीका तथा अन्य देशों ने भारत में पूंजी निवेश पर रोक लगा दी थी । स्वीडेन से बच्चों की शिक्षा के लिए जो पैसा आ रहा था उसको भी स्वीडेन की सरकार ने बंद कर दिया तो राजस्थान में बहुत सारे प्राथमिक स्कूल बन्द होने के कगार पर आ गए थे।

यह एक भयंकर गलती होगी कि हम प्रतिवर्ष खाद्यान्न का आयात करेंगे। इससे हमारी कृषि दिशाहीन और उद्देश्यहीन हो जाएगी । कृषि हमारा सबसे बड़ा उत्पादन का क्षेत्र है ।आबादी का दो-तिहाई हिस्सा इस क्षेत्र में रोजगार ढ़ूँढ़ता है । अंग्रेजों ने देढ़ सौ साल के राजत्व में हमारे देहातों को तहस नहस किया था । कृषि और गाँव को उस दशा से उबारने के लिए कृषि को सबसे अधिक महत्व देना होगा । किसानों को विशेष सहायता देनी होगी ,जिसको अनुदान या सब्सिडी कहा जाता है । भारी सब्सिडी के बल पर ही यूरोप और अमेरिका के देशों में कृषि समृद्ध हुई है । पूंजीवादी देशों में किसानों को सब्सिडी की जरूरत होती है। विश्वव्यापार संगठन हमें निर्देश देता है कि कृषि को अनुदान हम नहीं दे सकते हैं। छोटी पूंजी पर चलने वाले छोटे उद्योगों को भी हम संरक्षण नहीं दे सकते हैं । आधुनिक विशाल पैमानेके उद्योगों के लिए हमें विदेशी सहायता चाहिए क्योंकि इतना अधिक पूंजी निवेश हम नहीं कर सकते हैं । कम पूंजी वाला छोटा उद्योग ही हमारा स्वतंत्र राष्ट्रीय उद्योग हो सकता है । इसमें बहुत सारी देशी तकनीक का प्रयोग हो सकता है । इसको संरक्षण देना हमारा कर्त्तव्य है ।लेकिन विश्वव्यापार संगठन के आदेश के मुताबिक हम इनको संरक्षण नहीं दे सकते हैं ।जो भी संरक्षण पहले मिला था उसको एक-एक करके हटा रहे हैं । हमारे देश में हम अपनी कृषि और लघु उद्योग को संरक्षण देने से वंचित हैं , तो हम आजादी की लड़ाई क्यों लड़े थे ?

उल्टा हमे निर्देश होता है कि विदेशी कंपनियों को हम उतनी ही सुविधा दें , जितना अपने उद्योगों को देते हैं । इसके बारे में विश्वव्यापार संगठन की एक धारा है जिसका नाम है " राष्ट्रीय व्यवहार " । हम को तो करना यह चाहिए कि सबसे पहले हम अपने उद्योगों को संरक्षण दें । उसके बाद प्रतियोगिता के क्षेत्र में हम विकासशील देशों के उद्योगों को ज्यादा सुविधा दें और धनी देशों को कम । पाकिस्तानी उद्योगों को ज्यादा दें और अमरीकी को कम । लेकिन यह सब हम नहीं कर सकते हैं ।अमरीका और यूरोप औपनिवेशिक शोषण के बल पर अपना महान उद्योग खड़ा कर चुके हैं । विकासशील देशों का उद्योग लड़खड़ा रहा है । दोनों के प्रति समान व्यवहार नहीं हो सकता है । हमें यह कहने में लज्जा नहीं होनी चाहिए कि हम प्रतियोगिता में जर्मनी या ब्रिटेन के समकक्ष नहीं हैं । मुक्त व्यापार का जो अर्थ वे लगाते हैं वह हमें मान्य नहीं है ।अपने देश में अपनी कृषि , अपने उद्योग को हम संरक्षण अवश्य देंगे । ( जारी )

शुक्रवार, फ़रवरी 09, 2007

जगतीकरण क्या है ? : किशन पटनायक

सब दल लेकर हैं खड़े , अपने - अपने जाल

हे साधो ! कुछ चेतिए , देश बड़ा बेहाल .(१)

हल्दी ,तुलसी , नीम के , बाद जूट पेटेण्ट

ये भारत की सम्पदा , वो ग्लोबल मर्चेण्ट.(२)

भारत बस बाजार है , विस्तृत और समग्र

सिर्फ मुनाफे के लिए,मल्टीनेशनल व्यग्र.(३)

सम्प्रभुता,गौरव कहाँ,कहाँ आत्मसम्मान

अजी छोड़िए, आइए, करना है उत्थान.(४)

- शिव कुमार 'पराग' के दोहे(साभार-'देश बड़ा बेहाल')

भूमंडलीकरण , वैश्वीकरण ,खगोलीकरण , जगतीकरण आदि कई शब्दों का प्रयोग हो रहा है - अंग्रेजी शब्द , ग्लोबलाइजेशन के लिए । आधुनिक विश्व में तीन प्रकार के जगतीकरण हुए हैं । अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के द्वारा जगतीकरण का एक ढाँचा यूरोपीय देशों ने बनाया । जब यूरोप का बौद्धिक उत्थान हुआ और समुद्र पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणित हो गयी तो यूरोप के लोगों ने पूरी दुनिया से धन संपत्ति बटोरने के लिए समुद्री यात्राएं कीं । अनेक भूखंडों के मूलवासियों को हटाकर वहाँ पर वे खुद बस गये । दूसरे देशों पर उन्होंने अपना प्रत्यक्ष शासन यानि साम्राज्य स्थापित किया । आधुनिक यंत्र विद्या पहली बार साम्राज्य की केन्द्रीय व्यवस्था बनाए रखने में मददगार हुई । उसके पहले के युगों में जो साम्राज्य होते थे उनकी केन्द्रीय व्यवस्था नहीं हो सकती थी और शीघ्र ही वे बिखर जाते थे । सिकंदर और सीजर से लेकर सम्राट अशोक का यह किस्सा है कि थोड़े से समय के लिए धन बटोरा जाता था । लेकिन यंत्र विद्या केवल यूरोपीय साम्राज्यवाद के केन्द्रीकृत ढाँचे के तौर पर टिकी रही और शताब्दियों तक शोषण का अनवरत सिलसिला चलता रहा । कहावत बन गयी कि " ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कभी डूबता नहीं है । " दूसरे विश्व युद्ध के बाद इस प्रकार के जगतीकरण का अध्याय समाप्त हुआ ।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो नये प्रकार के जगतीकरण शुरु हुए । उसकी एक धारा संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा चलायी गयी । संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा में राष्ट्रों की बराबरी मानी गई थी । इसलिए बहुत सारी बातचीत और लेन-देन राष्ट्रों के बीच बराबरी के आधार पर होती थी। सारे विश्व से साधन इकट्ठा कर दुनिया से भूख , बीमारी , अशिक्षा , नस्लवाद , हथियारवाद आदि मिटाने के लिए महत्त्वपूर्ण पहल और कार्रवाइयाँ हुईं । उस समय की अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक सहयोग की संस्थाओं की कार्य प्रणाली भी अपेक्षाकृत ज्यादा जनतांत्रिक थी । अंकटाड और डंकल प्रस्ताव के पहले की गैट संधि इसका उदाहरण है । संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से जिस प्रकार का यह जगतीकरण चला , उससे अमरीका बिलकुल खुश नहीं था।अमरीका ने जब देखा कि उसके साम्राज्यवादी उद्देश्यों में राष्ट्र संघ बाधक बन सकता है , उसने राष्ट्र संघ को चंदा देना बंद कर दिया और राष्ट्र संघ से बाहर ही अंतर्राष्ट्रीय कूटनैतिक कार्यकलापों को बढ़ावा देने लगा । सोवियत रूस के पतन के बाद अमरीका को मौका मिल गया कि राष्ट्र संघ को बिलकुल निष्क्रीय बना दिया जाय । ईराक और युगोस्लाविया पर हमला राष्ट्र संघ की उपेक्षा का ताजा उदाहरण है । राष्ट्र संघ के माध्यम से चलने वाला जगतीकरण इस वक्त पूरी तरह अप्रभावी हो गया है ।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमरीका की अपनी बुद्धि से अन्य एक प्रकार का जगतीकरण भी शुरु किया गया था । उसको उन दिनों वामपंथियों ने आर्थिक साम्राज्यवाद कहा , क्योंकि इस बीच अमरीका ने साम्राज्यवाद की अपनी शैली विकसित की थी । उसमें किसी औपनिवेशिक देश पर प्रत्यक्ष शासन करने की जरूरत नहीं होती है । कमजोर और गरीब मुल्कों पर दबाव डालकर उनकी आर्थिक नीतियों को अपने अनुकूल बना लेना उसकी मुख्य कार्रवाई होती है । उन आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप आत्मनिर्भरता खतम हो जाती है और औपनिवेशिक देश धनी देशों पर पहले से अधिक निर्भर हो जाते हैं । जब कोई बड़ा संकट होता है और धनी देशों की मदद की जरूरत होती है तब धनी देशों के द्वारा नयी शर्तें लगायी जाती हैं जिससे औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को थोड़े समय की राहत मिलती है;लेकिन वह अर्थव्यवस्था अधिक आश्रित हो जाती है,और धनी देशों के द्वारा शोषण के नये रास्ते बन जाते हैं।औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था वाला देश आर्थिक रूप से इतना कमजोर और आश्रित होता है कि उसकी राजनीति को भी आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है ।उपर्युक्त उद्देश्य से १९४५ में ही विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष नामक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं की स्थापना हुई । १९९५ में विश्व व्यापार संगठन बना । ये तीन संस्थायें हैं जो नये जगतीकरण के तीन महत्वपूर्ण स्तंभ हैं । विश्वबैंक विकास के लिए ऋण देकर सहायता करता है और कैसा विकास होना चाहिए उसकी सलाह देता है । कई बार कर्ज लेने वाला देश विश्वबैंक की विकासनीति को अपनी विकास नीति के तौर पर मान लेने के लिए बाध्य होता है । इसलिए सारे गरीब देशों में एक ही प्रकार की विकास नीति प्रचलित हो रही है । यह विश्वबैंक के द्वारा बतायी गयी विकास नीति है ।

अक्सर हम विदेशी मदद की बात सुनते हैं । विश्वबैंक ,मुद्राकोष या धनी देशों की सरकारों से कम ब्याज पर जो ऋण मिलता है , उसी को विदेशी मदद कहा जाता है । विदेशी मदद के साथ-साथ विश्वबैंक की सलाह भी मिलती है कि हम अपने विकास के लिए क्या करें ।उनकी सलाह पर चलने का एक नतीजा होता है कि विदेशी मुद्रा की आवश्यकता बढ़ जाती है और उसकी कमी दिखाई देती है । जब विदेशी मुद्रा का संकट आ जाता है तब हमारा उद्धार करनेवाला अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष होता है । उसके पास जाना पड़ता है ।वह मदद देते समय शर्त लगाता है। उसकी शर्तें मुख्यत: दो प्रकार की होती हैं ;

(१) आर्थिक विकास के कार्यों मे सरकार की प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होनी चाहिए। किसी उद्योग , व्यापार या कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी अनुदान ,सबसिडी नहीं दी जाएगी ।

(२) देश की आर्थिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों को अधिक से अधिक छूट देनी होगी ।उन पर और उनकी वस्तुओं पर लगने वाली टिकस कम कर दी जाएगी । यानी विकासशील देश की अर्थव्यवस्था में धनी देशों के पूंजीपतियों का प्रवेश अबाध रूप से होगा ।इसके अलावा मुद्राकोष मदद माँगने वाले देश की मुद्रा का अवमूल्यन कराता है। ताकि हमारा सामान उनके देश में सस्ता हो जाए और उनकी वस्तुओं का दाम हमारे लिए महँगा हो जाए ।

सारे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के साथ इस प्रकार जुड़ जाती है । इस प्रकार का जुड़ाव प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के युग में भी था । फर्क यह है कि उस जमाने में हमारी अर्थनीति और विकासनीति का राजनैतिक निर्णय साम्राज्यवादी सरकार करती थी । आज हम खुद अपनी अर्थनीति को धनी देशों की अर्थनीति के साथ जोड़ने का निर्णय कर रहे हैं ।वे लोग सलाह देते हैं , हमारी सरकार उसी सलाह को निर्णय का रूप देती है। इसलिए इसको जगतीकरण कहा जा रहा है ।

१९४५ से १९९५ तक विकासशील देशों की अर्थनीति को धनी देशों की अर्थनीति का पिछलग्गु बनाने के लिए जितने नियम और तरीके बनाये गए थे , उन सारे नियमों को विश्वव्यापार संगठन कानून का रूप देकर अपना रहा है । विश्वबैंक सलाह देता है ;मुद्राकोष शर्त लगाता है और विश्वव्यापार संगठन कानून चलाता है । यहाँ दन्ड का प्रावधान भी है । यह व्यापार के मामले में विश्व सरकार है । लेकिन इस सरकार के निर्णयों को विकासशील देश अपने हित की दृष्टि से प्रभावित नहीं कर पाते हैं । व्यापार की विश्व सरकार में वे केवल दोयम दर्जे के सदस्य हैं ।

विश्वबैंक , मुद्राकोष और विश्वव्यापार संगठन तीनों अपने - अपने ढंग से काम कर रहे हैं। लेकिन ये एक दूसरे के पूरक हैं ।तीनों में इतना मेल है कि तीनों मिलकर विकासशील देशों एक ही रास्ता दिखाते हैं - एक ही दिशा में ढ़केलते रहते हैं । इसलिए सारे विकासशील देशों की समस्याएं एक ही प्रकार की होती जा रही हैं । इससे जो प्रतिक्रिया होगी , जो असन्तोष होगा,उसको हम एक दिशा में ले जा सकेंगे , तब संभवत: एक नयी यानी चौथे प्रकार का जगतीकरण शुरु होगा । क्योंकि तीसरी दुनिया के सारे देशों की समस्याएं सुलझाने के बजाए जटिल होती जा रही हैं , मौजूदा जगतीकरण की व्यवस्था के खिलाफ़ सारे देशों में गुस्सा और विद्रोह होना चाहिए । धनी देशों पर अपनी निर्भरता खतम कर गरीब देश अगर एकल ढंगसे या परस्पर के सहयोग से आत्मनिर्भर होने का लक्ष्य अपना लेंगे तो प्रचलित जगतीकरण के विरुद्ध एक विश्वव्यापी विद्रोह का माहौल बन जाएगा । विकासशील देशों के परस्पर सहयोग से जो अंतर्राष्ट्रीय संबंध बनेगा , उसके आधार पर नये जगतीकरण का आरंभ होगा । ( जारी, अगला- ' आर्थिक संप्रभुता क्या है ?')

गुरुवार, फ़रवरी 08, 2007

वैश्वीकरण : देश रक्षा और शासक पार्टियाँ : किशन पटनायक

गत प्रविष्टी से आगे : देश - रक्षा में हथियारों का प्रमुख स्थान नहीं । अगर आप राजनीतिमें , कूटनीति में , अर्थनीतिमें सब कुछ समर्पित करते जाएंगे , तो लड़ने के लिए क्या रह जाता है ? आप अपने उद्योगों को , खदानों को , व्यापार को , भूमि और बंदरगाहोंपर अधिकार को , बैंक और बीमा को विदेशी शक्तियों को समर्पित करने के लिए तैयार हैं , तो परमाणु बम से किन चीजों की रक्षा करना चाहते हैं ?

विदेशी पूँजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से हमारा कैसा सम्पर्क रहेगा , यह केवल वित्तमंत्री का विषय नहीं है । देश - रक्षा का सवाल इससे जुड़ा हुआ है क्योंकि सम्राज्यवादी शक्तियाँ विश्वबैंक , मुद्राकोष जैसी आर्थिक संस्थाओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से काम कर रही हैं , उनका मुकाबला हम कैसे करें और अपने राष्ट्र को गुलामी से कैसे बचायें , इसकी रणनीति बनाने वाला कोई विभाग हमारी सरकार का नहीं है। प्रतिरक्षा विभाग केवल सैनिक गतिविधियों से संबंधित है । विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री का कार्यालय भी आर्थिक साम्राज्यवाद के प्रतिकार के बारे में कोई गम्भीर चर्चा नहीं करते हैं । इसका कारण यह है कि देश की शासक पार्टियाँ साम्राज्यवाद के प्रति नरम रुख अपना रही है ।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रीय जागरण और स्वाधीनता आंदोलन में सबसे बड़ी भूमिका कांग्रेस दल की रही ।लेकिन कांग्रेस का चारित्रिक पतन हो चुका है और जनाधार भी छिन्न-भिन्न हो चुका है । फिर भी इसकी शासक दल वाली हैसियत बनी हुई है । राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा शासक दल है भारतीय जनता पार्टी । देश के लिए यह एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग है कि साम्राज्यवाद की चुनौती के सामने इन दोनों दलों की नीति झुकने की है ।दोनों का राजनैतिक चरित्र मीरजाफ़र के जैसा है ।यहाँ पलासी युद्ध के मीरजाफ़र की बात हम नहीं करते हैं ।हम नवाब मीरजाफ़र की बात कर रहे हैं - जो कंपनी की माँगों को पूरा करने के लिए तैयार हो जाता है । अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गाँधी दोनों की भूमिका इस वक्त वही है । पेटेंट और बीमा संबंधी विधेयकों के सन्दर्भ में यह बात साबित हो गयी । दोनों को ले कर कुछ - कुछ आश्चर्य भी होता है ।कांग्रेस को लेकर इसलिए आश्चर्य है कि कांग्रेस मुख्य प्रतिपक्षी पार्टी थी (लेख मई,१९९९ का है), और शासक पार्टी (भाजपा) को इस मुद्दे पर अप्रिय करने का एक बड़ा मौका था । कांग्रेस ने यह मौका छोड़ दिया। इससे अंदाज होता है कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इन विधेयकों को प्रेरित कराने के लिए इतना अधिक दबाव पैदा कर रही हैं कि प्रतिपक्ष के दल को भी शासक दल द्वारा लाये गये विधेयकों का समर्थन करना पड़ रहा है ।

भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के पहले भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग पेटेंट तथा बीमा विधेयकों के विरोधी थे । भाजपा और रा. स्व. संघ ले लोगों का प्रशिक्षण ऐसा हुआ है कि वे राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता में फर्क नहीं कर पाते हैं । उनकी साम्प्रदायिक भावना ज्यादा प्रबल है और दबाव पड़ने पर उनका राष्ट्रवाद दब जाता है । और यही दृश्य देखने को मिला जब बीमा विधेयक को लेकर भाजपा के अन्दर विवाद खड़ा हुआ ।

इसमें कोई शक नहीं कि विदेशी शक्तियों का दबाव बहुत पड़ता है । लेकिन यह कहकर कायरता का समर्थन नहीं किया जा सकता । भारत की तुलना में चीन के नेतृत्व को अमेरिका का ज्यादा (या उतना ही) दबाव झेलना पड़ता है । लेकिन चीन का नेतृत्व दबंग है। चीन की किसी एक बात पर प्रशंसा होनी चाहिए तो उसके राष्ट्रवादी दबंगपन की होनी चाहिए । चीन सरकार की आर्थिक नीतियाँ गलत दिशा में जा रही हैं;फिर भी चीन की स्थिति तीसरी दुनिया के अन्य सभी देशों से बेहतर है ,कारण चीन का राष्ट्रवाद साम्राज्यवादी धमकी से दबता नहीं है ।अभी हाल में चीन के प्रधानमंत्री झुग रोंगजी अमेरिका गये थे ।चीन पर अमरीकी आरोपों का जवाब देते हुए झुग ने राष्ट्रपति क्लिंटन और उनके मंत्रियों को ऐसी खरी बात सुनाई कि अंग्रेजी अखबार वाले लिखते हैं क्लिंटन की बोलती बन्द हो गयी । श्री झुग अच्छी अंग्रेजी बोल सकते हैं , लेकिन अमरीका में उन्होंने अपनी भाषा में बात की ।क्या भारत का राजनैतिक नेतृत्व चीन से राष्ट्रवाद और स्वाभिमान की सीख ले सकता है ? देश रक्षा स्वाभिमान से शुरु होती है ।जब भारत में डंकल प्रस्ताव और विश्वव्यापार संगठन में पर बहस चल रही थी तो लचर दिमागवाले बुद्धिजीवी क्या कहते थे ? वे कहते थे कि देखो , चीन भी विश्वव्यापार संगठन में जाने की कोशिश कर रहा है । तो हम पीछे क्यों रहें ?ऐसा सोचने वालों का देश पीछे रहेगा ।चीन का विदेशी व्यापार भारत से अधिक मजबूत है ।चीन ने अभी तक विश्वव्यापार संगठन में प्रवेश नहीं किया , क्योंकि वह अपनी शर्त पर शामिल होना चाहता है । उसकी शर्त मानना अमरीका को मुश्किल पड़ रहा है ।इस बात को लेकर भारत के समाचारपत्र चीन की तारीफ क्यों नहीं करते हैं ?

पाकिस्तान और चीन में से कौन बड़ा दुश्मन है - यह एक गौण प्रश्न है । संभवत: हमारी उलझन दोनों से एक जैसी है । हमारा मुख्य संघर्ष साम्राज्यवादी शक्तियों से है , क्योंकि उनका हमला हमारे राष्ट्रवाद और स्वाभिमान पर है । हमारी राष्ट्र भावना को कमजोर करने के लिए वे सांस्कृतिक हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं ।अगर साम्राज्यवादी शक्तियों से हम संघर्ष कर पाएंगे , तो पाकिस्तान और चीन से संबंध भी सुधर सकेगा ।

भारत की विदेश नीति हमेशा कमजोर रही है ।फिर भी कुछ समय तक साम्राज्यवादी शक्तियों का प्रतिरोध हमारी विदेशनीति का एक पहलू रहा ।निर्गुट सम्मेलन को इसी के लिए संचालित किया जाता रहा । लेकिन निर्गुट सम्मेलन में अपनि भूमिका अदा करने के लिए भारत का नेतृत्व सोवियत रूस पर निर्भर हो गया और जब सोवियत रूस का पतन हुआ,तब निर्गुट सम्मेलन भी प्रभावहीन हो गया । उसके स्थान पर कोई नया अंतर्राष्ट्रीय ढ़ाँचा बनाया नहीं गया है । तब से साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध भारत की कोई रणनीति नहीं रह गयी है । सार्क देशों को मिलाकर हो , या एशिया ,अफ़्रीका और लातिनी अमरीका के कई देशों

को लेकर हो- एक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का ढ़ाँचा बनना ही चाहिए । इस संबंध में चीन की दूर दृष्टि में भी कमी है । केवल अपने देश की विशालता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के बल पर चीन लम्बे समय तक साम्राज्यवादियों का प्रतिरोध नहीं कर सकेगा ।एक अंतर्राष्ट्रीय ढ़ाँचा बनाने के लिए चीन पहल करेगा तो पड़ोसियों से भी उसका संपर्क ज्यादा नरम और भाईचारा वाला होगा । मलेशिया के मोहम्मद महातीर भी साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रतिकार के लिए सचेत और मुखर रहते हैं ।उन्हें भी चाहिए कि एक नये अंतर्राष्ट्रीय ढाँचे की पहल करें ।(जारी,अगला: जगतीकरण क्या है? )

बुधवार, फ़रवरी 07, 2007

बातचीत के मुद्दे : किशन पटनायक

 

शर्मनाक सदी

    भारत के सबसे ज्यादा पतन का समय था अठाहरहवीं शताब्दी का ।इसी शताब्दी में भारत की प्रत्यक्ष गुलामी शुरु हुई , और शताब्दी के अंत तक (१७९९, टीपू सुल्तान की पराजय) भारत के बहुत बड़े हिस्से पर अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित हो गया था । इस शर्मनाक शताब्दी के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी सबको होनी चाहिए । इतिहास की किसी अच्छी पुस्तक में साठ-सत्तर पृष्ठ पढ़कर भी इसके बारे में समझ बन सकती है । इस विषय पर सबसे अच्छी किताब शायद पण्डित सुन्दरलाल की " भारत में अंग्रेजी राज " है ।जब हम कहते हैं कि अठाहरवीं शताब्दी में भारत की प्रत्यक्ष गुलामी शुरु हुई , तो कोई यह तर्क न दे कि उसके पहले मुसलमानों का राज हो चुका था । ऐसी चीजों में, दोनों में फरक न करने पर निष्कर्ष निकालने में बहुत बड़ी गलतियाँ हो सकती हैं । मुसलमान आक्रमणों में भारत की पराजय हुई थी ; लेकिन मुसलमानों के शासनकाल में भारत किसी दूसरे देश का गुलाम नहीं था ।

    अठारहवीं सदी के बारे में निम्नलिखित बातें समझने की जरूरत है । अंग्रेजों के शासन में (१९४७ तक) भारत की साधारण जनता की जो आर्थिक दशा हुई,उससे बेहतर अठारहवीं सदी में थी । भारत का व्यापार चोटी पर था ; गाँव का किसान कंगाल नहीं था ।लेकिन भारतीय समाज पंगु हो रहा था ; उसमें पूरी तरह जड़ता आ गयी थी । जाति प्रथा में इतनी संकीर्णता और कठोरता आ गयी थी कि जनसाधारण के प्रति शासक और संभ्रांत समूहों का व्यवहार अमानवीय हो गया था । शासक और संभ्रांत वर्गों में ही औरत की स्थिति सबसे ज्यादा अपमानजनक थी , भारतीय उद्योगों में सामर्थ्य था ; लेकिन उनमें लगे हुए लोगों को शूद्र कहकर उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता था । ऐसा समाज यूरोप की आक्रामक जातियों से लड़ नहीं पाया । उन दिनों राजाओं और नवाबों में कुछ स्वाभिमानी और अदम्य लोग भी थे । लेकिन शासकों और संभ्रांतों का सामूहिक चरित्र कायरतापूर्ण और अवसरवादी था । टीपू और सिराजुद्दौला जैसे लोग अपवाद थे (जैसे आज की राजनीति में कहीं -  कहीं अपवाद मिल जाएंगे) , लेकिन औसत शासक और औसत सामंत चरित्रहीन था । विद्वानों और बुद्धिजीवियों में किताबी ज्ञान था , किंतु समाज और राष्ट्र को प्रेरित करने के लिए साहसिक विचार नहीं थे। पूरे देश के पैमाने पर अंग्रेजों के खिलाफ़ एक रणनीति नहीं बन पाई । १८५७ तक बहुत विलम्ब हो चुका था । भारतीय समाज के चरित्र की दुर्बलताओं को अंग्रेज समझ गये थे और उसीके मुताबिक अंग्रेजों ने अपनी भारत-विजय की रणनीति बनायी । उन दिनों भी भारत और चीन में उन्नीस-बीस का फर्क था । इसी कारण चीन पर यूरोप का आधिपत्य रहा , लेकिन प्रत्यक्ष शासन नहीं हो सका । जितना गुलाम भारत हुआ , उतना पूर्व एशिया के चीन , जापान आदि देश नहीं हुए ।

    इतिहास के इस अध्याय की चर्चा हम इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि आज भी उसी तरह का नाटक हो रहा है । आजादी के पचास साल बाद भी भारत के शासक और शिक्षित वर्गों ने सामाजिक चरित्र को बदलने की कोशिश नहीं की ।जनसाधारण और शिक्षित वर्ग की दूरी बढ़ती जा रही है ।नव साम्राज्यवादियों के प्रलोभनों और धमकियों के सामने हमारा शासक वर्ग झुकता जा रहा है । इस स्थिति के बारे में देशवासियों को आगाह करना है ।

    पश्चिमी साम्राज्यवाद पहले आर्थिक संप्रभुता को छीनने की कोशिश करता है । अठारहवीं सदी में हम यही पाते हैं । पलासी युद्ध (१७५७) के बाद बंगाल के नवाब मीरजाफ़र ने ईस्ट इंडिया कंपनी को राजस्व वसूलने और जुर्माना लगाने के अधिकार समर्पित कर दिये।राजस्व वसूलना और जुर्माना लगाना सरकार का काम है । सरकारी कामों के निजीकरण की यह पहली मिसाल है । आज हम उदारीकरण नीति के तहत जब जब विद्युत विभाग , बीमा व्यवसाय ,खदानों , रेल , दूरसंचार आदि का निजीकरण करने जा रहे हैं तो उसकी असलियत यह है कि जिन कामों को सरकार करती थी उन कामों को अब विदेशी कंपनियाँ करेंगी । हमारी आर्थिक संप्रभुता का हस्तांतरण हो रहा है ।

    जब ईस्ट इंडिया कंपनी को आर्थिक अधिकार मिलने लगे तब अधिकारों को मजबूत करने के लिए यह जरूरी लगा कि नवाब की गद्दी पर कंपनी का नियंत्रण रहे । गद्दी से किसको हटाना है और गद्दी पर किसको बैठाना है यह खेल कंपनी करने लगी । पहले मीरजाफ़र को बैठाया,फिर मीरकासिम को,फिर मीरकासिम को हटाकर मीरजाफ़र को । इसी तरह पूरे देश के राजाओं और नवाबों की गद्दियों का असली मालिक अंग्रेज हो गया ।

    आज के समय में एशिया , अफ़्रीका , लातिनी अमरीका के देशों की गद्दी पर कौन बैठेगा,कौन हटेगा,इसकी साजिश अमरीका करता रहता है । भारत में एक प्रकार का जनतंत्र है ।जनसाधारण के द्वारा सरकारें चुनी जाती हैं ।विदेशी शक्तियाँ पैसों और दलालों के द्वारा दखल देने की कोशिश करती हैं । लेकिन भारत का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति कौन होगा , इसपर उनका नियंत्रण नहीं है । हांलाकि वित्तमंत्री का पद संदेह के घेरे में आ चुका है । १९९१ से यह स्थिति बनी हुइ है कि अगर कोई व्यक्ति विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की पसंद नहीं है तो वह वित्तमंत्री नहीं बन सकेगा ।केन्द्रीय सरकार के जो अर्थनीति सम्बन्धी विभाग हैं उनके मुख्य प्रशासनिक पदों पर हमारे ऐसे अफसर स्थापित हो जाते हैं जिनका पहले से विश्व बैंक और मुद्राकोष के साथ अच्छा रिश्ता होता है।ये लोग कभी न कभी विश्वबैंक या मुद्राकोष के नौकर रह चुके हैं।ऐसी बातें खुली गोपनीयता हैं ।इसके बारे में देश के संभ्रांत समूह,शिक्षित वर्ग और प्रमुख राजनैतिक दलों के नेतृत्व से हम ज्यादा आशा नहीं कर सकते हैं । उन्हीं को माध्यम बनाकर साम्राज्यवादी शक्तियाँ आगे बढ़ रही हैं ।लेकिन जो आम शिक्षित लोग हैं,युवा और विद्यार्थी हैं,देहातों और कस्बों के सचेत लोग हैं' उनसे देश की वर्तमान हालत के बारे में अगर पर्याप्त बातचीत और बहस हो सके,तो संभव है कि देश में एक चेतना का प्रवाह होगा । देश-निर्माण के लिए साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक राष्ट्रीय स्वाभिमानी चेतना बनाने में हरेक का योगदान होना चाहिए ।जारी,(अगली प्रविष्टी : देश रक्षा और शासक पार्टियाँ )

वाल मार्ट पर लिंगभेद का बड़ा मामला

साभार : BBC Hindi.com

 

 

 

 

बुधवार, 07 फ़रवरी, 2007 को 02:47 GMT तक के समाचार

 

अमरीका की बड़ी रिटेल कंपनी वॉलमार्ट को लिंगभेद के लिए अपनी 15 लाख महिला कर्मचारियों को अरबों डॉलर के मुआवज़े का भुगतान करना पड़ सकता है.

 

वॉलमार्ट में काम करने वाली सात महिलाओं ने आरोप लगाया था कि वेतन देने से लेकर पदोन्नति तक सभी मामले में उनके साथ महिला होने के कारण भेदभाव किया जाता है.

अमरीका की एक केंद्रीय अदालत ने इस पर फ़ैसला देते हुए इस मामलो को कंपनी में काम करने वाली सभी महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के रुप में देखते हुए मुक़दमा चलाने का आदेश दिया है.

यह अमरीकी इतिहास में लिंगभेद का अब तक का सबसे बड़ा मामला है. और यह मामला झेल रही है अमरीका की सबसे बड़ी रिटेल कंपनी, जो देश में सबसे ज़्यादा कर्मचारियों वाली कंपनी है.

कंपनी ने इस आरोप का खंडन करते हुए कहा है कि उसकी नीतियाँ भेदभाव करने वाली नहीं हैं.

वॉलमार्ट का कहना है कि वह इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में भी अपील करेगा.

मामला

लिंगभेद की शिकायत की थी वॉलमार्ट की सात महिलाओं ने. उनका आरोप था कि वेतन से लेकर पदोन्नति तक सभी मामले में उनके साथ इसलिए भेदभाव किया गया क्योंकि वे महिला थीं.

शिकायतकर्ताओं का आरोप था कि वॉलमार्ट महिला कर्मचारियों को पुरुष कर्मचारियों की तुलना में 10 से 15 प्रतिशत कम वेतन देता है. उन्होंने कहा था कि पदोन्नति में भी इसी तरह का भेदभाव किया जाता है.

उल्लेखनीय है कि वॉलमार्ट में दो तिहाई कर्मचारी महिलाएँ हैं.

सैनफ़्रांसिस्को की एक अदालत ने इस मामले पर फ़ैसला दिया था कि इसे एक ‘सामूहिक मामले’ की तरह देखा जा सकता है और कंपनी की सभी वर्तमान और पूर्व महिलाओं के साथ भेदभाव करने के लिए मुक़दमा चलाया जा सकता है.

इसके बाद कंपनी की 15 लाख वर्तमान और पू्र्व महिला कर्मचारियों के लिए यह रास्ता खुल गया था कि यदि वे चाहें तो इस मुक़दमे में शामिल हो सकती हैं.

न्यायाधीश मार्टिन जेनकिंस ने कहा है कि इस बात के पर्याप्त सबूत मौजूद हैं कि 1998 के पहले की जो नीतियाँ थीं उसके तहत महिला कर्मचारियों के साथ भेदभाव होता था.

हालांकि इस फ़ैसले से न्यायाधीश एंड्र्यू क्लेनफ़ील्ड सहमत नहीं थे और उन्होंने कहा था कि भेदभाव सिर्फ़ पदोन्नति में दिखता है क्योंकि मैनेजरों में सिर्फ़ 15 प्रतिशत महिलाएँ हैं.

यदि वॉलमार्ट यह मुक़दमा हार जाए तो उसे वर्तमान और पूर्व महिला कर्मचारियों को अरबों डॉलर का मुआवज़ा देना पड़ सकता है.

वॉलमार्ट की अपील

इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ वॉलमार्ट ने अपील की थी.

लेकिन केंद्रीय अदालत ने निचली अदालत के 2004 के फ़ैसले को बरकरार रखते हुए इसे सामूहिक मामला ही मानकर मुक़दमा चलाने को कहा है.

वॉलमार्ट का कहना है कि अमरीका में उसके 3,400 स्टोर्स हैं और यह किसी के लिए संभव नहीं होगा कि सभी स्टोर्स में जाकर महिलाओं के साथ भेदभाव की जाँच कर सके.

कंपनी का कहना था कि इस सामूहिक मामला नहीं मानना चाहिए और जिस स्टोर में भी महिलाओं को शिकायत हो उन्हें अलग-अलग मुक़दमा दायर करना चाहिए.

महिलाओं का मुक़दमा लड़ रहे वकील ब्रैड सेलिगमैन ने कहा है कि उनके आरोपों की दो अदालतों ने पुष्टि कर दी है.

उन्होंने कहा, “वॉलमार्ट अपील करता रहे, हमें पूरा भरोसा है कि हम जीतेंगे. आख़िर दो अदालतों ने हमारे सबूतों को माना है.”

हालांकि यह पहला अवसर नहीं है जब वॉलमार्ट को अदालत में मुआवज़े के लिए लड़ना पड़ रहा है.

इससे पहले पिछले साल ही कंपनी को उन कर्मचारियों को 7 करोड़ 80 लाख डॉलर का मुआवज़ा देने के निर्देश दिए थे, जिन्होंने अपनी ड्यूटी के दौरान बिना ‘ब्रेक’ लिए काम किया था.

स्रोत http://www.bbc.co.uk/hindi/business/story/2007/02/070207_walmart_discrimination.shtml

रविवार, फ़रवरी 04, 2007

युद्ध पर तीन कविताएँ , एक अनुवाद

युद्ध : एक

हम चाहते हैं कि युद्ध न हों

मगर फौजें रहें

ताकि वे एक दूसरे से ज्यादा बर्बर

और सक्षम होती जायें कहर बरपाने में

हम चाहते हैं कि युद्ध न हों

मगर दुनिया हुकूमतों में बँटी रहे

जुटी रहे घृणा को महिमामण्डित करने में

हम चाहते हैं कि युद्ध न हों

मगर इस दुनिया को बदलना भी नहीं चाहते

हमारे जैसे लोग

भले चाहें कि युद्ध न हों

मगर युद्ध होंगे ।

- राजेन्द्र राजन

युद्ध : दो

जो युद्ध के पक्ष में नहीं होंगे

उनका पक्ष नहीं सुना जायेगा

बमों और मिसाइलों के धमाकों में

आत्मा की पुकार नहीं सुनी जायेगी

धरती की धड़कन दबा दी जायेगी टैंकों के नीचे

सैनिक खर्च बढ़ाते जाने के विरोधी जो होंगे

देश को कमजोर करने के अपराधी वे होंगे

राष्ट्र की चिन्ता सबसे ज्यादा उन्हें होगी

धृतराष्ट्र की तरह जो अन्धे होंगे

सारी दुनिया के झंडे उनके हाथों में होंगे

जिनका अपराध बोध मर चुका होगा

वे वैज्ञानिक होंगे जो कम से कम मेहनत में

ज्यादा से ज्यादा अकाल मौतों की तरकीबें खोजेंगे

जो शान्तिप्रिय होंगे मूकदर्शक रहेंगे भला अगर चाहेंगे

जो रक्षा मंत्रालयों को युद्ध मंत्रालय कहेंगे

जो चीजों को सही-सही नाम देंगे

वे केवल अपनी मुसीबत बढ़ायेंगे

जो युद्ध की तैयारियों के लिए टैक्स नहीं देंगे

जेलों में ठूँस दिये जायेंगे

देशद्रोही कहे जायेंगे जो शासकों के पक्ष में नहीं आयेंगे

उनके गुनाह माफ नहीं किये जायेंगे

सभ्यता उनके पास होगी

युद्ध का व्यापार जिनके हाथों में होगा

जिनके माथों पर विजय-तिलक होगा

वे भी कहीं सहमें हुए होंगे

जो वर्तमान के खुले मोर्चे पर होंगे उनसे ज्यादा

बदनसीब वे होंगे जो गर्भ में छुपे होंगे

उनका कोई इलाज नहीं

जो पागल नहीं होंगे युद्धमें न घायल होंगे

केवल जिनका हृदय क्षत-विक्षत होगा ।

- राजेन्द्र राजन

जे युद्धे भाई के मारे भाई

(बांग्ला)

जे युद्धे भाई के मारे भाई

से लड़ाई ईश्वरेर विरुद्धे लड़ाई ।

जे कर धर्मेर नामे विद्वेष संचित ,

ईश्वर के अर्ध्य हते से करे वंचित ।

जे आंधारे भाई के देखते नाहि भाय

से आंधारे अंध नाहि देखे आपनाय ।

ईश्वरेर हास्यमुख देखिबारे पाई

जे आलोके भाई के दिखिते पाय भाई ।

ईश्वर प्रणामे तबे हाथ जोड़ हय ,

जखन भाइयेर प्रेमे विलार हृदय ।

- रवीन्द्रनाथ ठाकुर

(हिन्दी अनुवाद)

वह लड़ाई ईश्वर के खिलाफ लड़ाई है ,

जिसमें भाई भाई को मारता है ।

जो धर्म के नाम पर दुश्मनी पालता है ,

वह भगवान को अर्ध्य से वंचित करता है ।

जिस अंधेरे में भाई भाई को नहीं देख सकता ,

उस अंधेरे का अंधा तो

स्वयं अपने को नहीं देखता ।

जिस उजाले में भाई भाई को देख सकता है ,

उसमें ही ईश्वर का हँसता हुआ

चेहरा दिखाई पड़ सकता है ।

जब भाई के प्रेम में दिल भीग जाता है ,

तब अपने आप ईश्वर को

प्रणाम करने के लिए हाथ जुड़ जाते हैं ।

मूल बांग्ला से अनुवाद : मोहनदास करमचंद गांधी

स्रोत : हरिजन सेवक,२नवंबर १९४७

अनुवाद की तारीख , २३ अक्टूबर १९४७

Technorati tags: , , ,